29 सितंबर से 14 अक्टूबर तक रहेगा पितृपक्ष - गया में होता है पितृपक्ष में पितरनों की शांति के लिए तर्पण
दिव्य रश्मि संवाददाता जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |
पितृपक्ष में पितरनों की शांति के लिए तर्पण किया जाता है। इस अवधि में नियम संयत से रहना, खान पान के साथ साथ आचार व्यवहार में भी संयत जरुरी होता है। ऐसे तो तर्पण, तिथि पर, किया जाता है। लेकिन जो लोग अपने पितरनों के नाम पर एक पखवाड़ा तक प्रतिदिन पूजा तर्पण करते है, उन्हें विशेष लाभ मिलता है।
पितृपक्ष में पितरनों के पिंड दान के लिए बिहार के गया जिला में भाद्र पक्ष की पूर्णिमा से लेकर आश्विन की अमावस्या तक पिंडदान आदि कार्य करने का उत्तम समय माना जाता है। इस वर्ष 29 सितंबर से शुरू होकर 14 अक्टूबर तक पितृपक्ष चलेगा।
विश्व के प्राचीनतम शहरों में भारत के बिहार राज्य में अवस्थित है “गया”। “गया” को लोग श्रद्धा से “गया जी” कहकर सम्बोधित करते है। “गया” शहर का उल्लेख “ऋग्यवेद” में किया गया है। “गया” भगवान विष्णु की नगरी कहा जाता है। “वायुपुराण” के अनुसार, प्राचीनकाल में गयासुर नामक एक असुर था, जिसने दैत्य गुरु शुक्राचार्य की शरण में रहकर वेद, धर्म और युद्ध कला में दक्षता हासिल करने के बाद भगवान विष्णु की कठिन तपस्या की। कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने गयासुर को यह वरदान दिया कि “जो भी उसका (गयासुर का) दर्शन करेगा वह सीधे स्वर्ग को जायेगा।” इस वरदान की यह प्रतिक्रिया हुई कि गयासुर दर्शन कर सीधे लोग स्वर्ग (मोक्ष) प्राप्त करने लगा और यमलोक कोई नही जाने लगा। ऐसी स्थिति में यमराज सहित सभी देवताओं की अस्तित्व संकट में दिखने लगा।
इस समस्याओं से निपटने के लिए समस्त देवताओं ने ब्रह्माजी के नेतृत्व में सभा कर यह निर्णय लिया कि गयासुर को उसके शरीर पर यज्ञ करने को तैयार (राजी) किया जाय। ब्रह्मा जी ने पहल कर गयासुर के पास जाकर कहा की यज्ञ करने के लिए उसे एक पवित्र स्थल चाहिए और मुझे तुम्हारे शरीर से अधिक पवित्र स्थल मुझे कही दिखाई नही दे रहा है। गयासुर इस याचना को सुनकर प्रसन्न और भावुक होकर अपने शरीर पर यज्ञकरने की अनुमति दे दी।यज्ञ के लिए जब गयासुर जमीन पर लेटा तो उसका शरीर दस मील और सिर दो मीलमें फैल गया था। सभी देवताओं ने गयासुर के छाती पर बैठकर छाती को दबाकर, फिर धर्मशिला रखकर मारने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिला तब भगवान विष्णु ने छाती पर रखा धर्मशाला पर अपना पैर रख कर जोर से दबाते हुए गयासुर को कहा कि मृत्यु के अंतिम घड़ी में जो चाहो वरदान मांग लो।
गयासुर ने मृत्यु के समय यह वरदान मांगा कि “जिस स्थान पर प्राण त्याग रहा हूँ ‘वह शिला में परिवर्तित हो जाये और मैं उसमें मौजूद रहूँ, तथा इस शिला पर आपके पवित्र पैर (चरण) की स्थापना हो जाये और जो इस शिला पर पिण्डदान और मुंड (मुंडन) दान करेगा उसके पूर्वज सभी पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में वास करेंगे, अगर इस शिला पर जिस दिन एक भी पिण्डदान और मुंड (मुंडन) दान नही होगा तो उस दिन इस क्षेत्र और शिला का नाश हो जायेगा। गयासुर के इस वरदान के कारण बिहार राज्य के इस जिला का नाम “गया” हुआ और भगवान विष्णु के पद चिन्ह के कारण इस स्थान और मंदिर को “विष्णुपद” कहा जाता है।
पितृपक्ष में पितरनों की उपस्थिति का संकेत भी लोगों को मिलता है। यदि घर में पीपल का पौधा निकल आए तो ये आपके घर में पितरनों की उपस्थिति माना जाता है। पितृपक्ष के दौरान घर में अचानक से लाल चीटियां दिखाई देती हैं और आपको उनके आगमन का सही कारण पता नहीं चलता है। यदि आपके घर में लगा हुआ हरा भरा तुलसी का पौधा अचानक से सूख जाए और उसका कारण पता नहीं चले। घर में अचानक से काले कुत्ते का आगमन होना। काले कुत्ते को पूर्वजों का संदेशवाहक माना जाता है। यदि पितृ पक्ष के दौरान घर में कौआ भोजन को ग्रहण करने आ जाए जो आपने पितरों के निमित्त निकाला है। मान्यता है कि इस तरह का संकेत पितृपक्ष में मिलना पितरनों की उपस्थिति दर्शाती है।
फल्गु नदी तट पर बसा शहर भारत में अकेला शहर है “गया”, जिसके नाम के साथ जी लगता है, इसलिए लोग “गया” को “गया जी” कहते है। देखा जाय तो भारत के अधिकांश भूभाग अंतः सलिला नही दिखती है जहाँ नदी सुख जाने के बाद भी हाथ-दो-हाथ अंदर जल का प्रवाह हो।
गया शहर को अस्तित्व में लाने का श्रेय सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा को जाता है। गया शहर अपने स्थापत्य काल से ही अनेक उतार-चढ़ाव के बाद भी प्राचीन काल से आस्था और श्रद्धा का केन्द्र है। ऋग्यवेद में अय, पुराणों में गया, जैन साहित्य में राजा गय और बुद्धचरित में ऋषिगण से जाना जाता है। इसतरह के किदवंतियों और कथाओं के बावजूद यहाँ संबद्धता दर्शाता है।
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