कासे कहूँ पीर
कल मैं अपने एक रिश्तेदार को पटना स्टेशन पर सुबह सुबह छोड़ने गया था। लौटने के क्रम में पीछे से कंधे पर किसी के द्वारा हाथ रखने का अहसास हुआ। पीछे मुड़ कर देखा। ये तो तिवारी जी थे! मुस्कुराते हुए बोले,-" बहुत दिनों बाद संयोगवश आप से मुलाकात हो रही है। दिल्ली से बेटा के पास से लौटकर आ रहा हूँ।" तिवारी जी को अचानक देख कर मुझे बहुत खुशी हुई।मैंने उनसे आग्रह करते हुए कहा, आज आप मेरे यहाँ रूकिए, कल सुबह चले जाईएगा। वह मेरा आग्रह स्वीकार करते हुए तैयार हो गए। मैं और तिवारी जी कक्षा आठ से बी० ए० तक की पढ़ाई साथ साथ किये थे। कक्षा आठ से मैट्रिक तक मरहौरा हाई स्कूल में पढ़ाई हुई और काँलेज की पढ़ाई जगदम काँलेज छपरा में हुई। तिवारी जी सौम्य एवं काफी मृदुभाषी है। पढ़ाई में बहुत अच्छे थे।हम दोनों साथ साथ एक ही बेंच पर बैठा करते थे। पढ़ाई पूरी करने के बाद वह गांव पर ही खेती-गृहस्थी के काम में लग गये और मैं लॉ की पढ़ाई करने मुज्जफरपुर चला गया।बहुत दिनों तक हम दोनों के बीच पत्रों का आदान प्रदान होता रहा। लेकिन, बाद में यह सिलसिला धीरे धीरे बंद हो गया। आज उनसे मिलकर पुरानी यादें ताजा हो गयी। स्टेशन से लौटने के बाद वे स्नान कर मेरे साथ बैठे। हम दोनों ने साथ साथ चाय - नाश्ता किया और फिर बातों का सिलसिला चल पड़ा। तिवारी जी बात की शुरुवात करते हुए बोले- "बेटा के पास पन्द्रह दिन पहले दिल्ली गया था। दिन भर घर में बैठे बैठे जी उब गया था। एक ही बेटा है। सुबह में जल्दी ही काम पर निकल जाता है और शाम को देर से लौटता है।" आगे बोले,- "विनोद जी, आप तो जानते है कि यह लड़का मेरा इकलौता संतान है। विगत चार साल से यह गांव पर आना-जाना छोड़ दिया है।पत्नी अब बीमार रहती है।भतीजा की बहू हम दोनों की देखभाल करती है। लेकिन उसका भी तो अपना अलग घर- संसार है। फिर भी वह हम दोनों पति- पत्नी को बिना खाना खिलाए स्वयं अन्न -जल ग्रहण नहीं करती है। लेकिन,विगत पन्द्रह दिनों में मुझे बिना किसी संशय के यह महसूस हुआ कि मैं अपने खुद के बेटा- बहू पर एक बोझ बन बैठा हूँ। वे आगे बोले,- चार दिन पहले तो हद ही हो गयी। बेटा काम पर चला गया था।मैं चुपचाप बैठा हुआ था।तभी बहू वहाँ आयी और बोली, - बाबू जी, माई जी बीमार रहती है।आप भी पके आम है, कब इस संसार से उठ जाइएगा कोई नहीं जानता। आपका बेटा स्टाम्प पेपर खरीद कर लाये है और मुझ से कह गये है कि बाबू जी को कहना कि गांव की सारी जमीन और घर हम लोगों के नाम पर कर देगें। तिवारी जी सांस छोड़ते हुए आगे बोले,- मैनें उससे कहा ठीक है,उसे काम से वापस आने दो बात कर लूगा। इसके बाद शाम में मैं चुपके से घर से स्टेशन आ गया और ट्रेन पकड़ वापस पटना आया और संयोग से आपसे मुलाकात हो गयी। मैंने देखा उनकी आँखे नम हो चुकी थी। "तिवारी जी," - मैंने कहा,- ईश्वर किसी को सारा सुख एक साथ नहीं देता है।संसार में हर व्यक्ति दुखी है।आप तो बहुत ही भाग्यशाली है कि गांव वाली बहू आप दोनों का इतना ख्याल रखती है।उसी को अपनी बेटी समझिए। तिवारी जी आज सुबह चले गये। मैं उन्हें मीठापुर बस स्टैंड में जा कर बस में बिठा दिया। बस खुलने लगी। मैनें उनसे पुन: आने का आग्रह किया।उनके होठों पर एक फीकी मुस्कुराहट फैल गयी। बस धीरे धीरे आगे सड़कती गयी और बाद में आँखों से ओझल हो गयी। तिवारी जी चले गये लेकिन अपने पीछे अनगिनत प्रश्न छोड़ गये जिनका उत्तर मैं शायद ही कभी ढूढ़ पाँऊ।
साभार पूर्णिमा
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