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जान बूझ कर जो गड्ढे में गिरते हैं

जान बूझ कर जो गड्ढे में गिरते हैं

विधर्मी से शादी के कुपरिणाम, रोज सामने आते हैं,
बहन बेटियाँ रोज जलाते, और मार दिए जाते हैं।
नहीं समझ आता है हमको, उनका कट्टर पंथी खेल,
यह लव जिहाद का खेल, हम उसमें फँसते जाते हैं।


जान बूझ कर जो गड्ढे में गिरते हैं,
बात किसी की कभी नहीं सुनते हैं।
उनसे कैसी हमदर्दी कोई बतला दो,
निज धर्म छोड़ जो अधर्मी से मिलते हैं।


माता पिता ने समझाया तो धता बताई,
प्यार के आगे नहीं किसी की चलने पाई।
जिसकी खातिर तुमने अपना नाम भी छोड़ा,
अपनों से गद्दारी की तुमको सजा दिलाई।


माँ बाप भी इसके दोषी कम नहीं हैं,
संस्कारों पर जिनको कोई दंभ नहीं है।
खुली सोच और आधुनिकता की चाह,
बच्चों पर जिनका नियंत्रण जरा नहीं है।


जब पड़ती मुश्किल फिर चिल्लाते हैं,
कानून पर बढ़ चढ़ आरोप लगाते हैं।
धर्मनिरपेक्षता की बातें करने वाले ही,
संस्कार संस्कृति का ढोल बजाते हैं।

अ कीर्ति वर्द्धन
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