बिस्तर
डा• मेधाव्रत शर्मा, डी.लिट.
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
बिस्तर की बड़ी अहम्मीयत है, मेरे भाई! ईश्वर न करे किसी को जीते-जी बेबिस्तर होना पड़े। आजकल 'लिव-इन-रिलेशनशिप 'का रिवाज सुरसा-मुख की नाईं बढ़ रहा है। बड़े-बड़े लोग बड़े-बड़े होटलों में 'हमबिस्तरी 'करने जाते हैं। बात बढ़ते-बढ़ते शादी के सवाल पर पहुँचती है और दो में से किसी का ईमान डिग गया, तो ज्यादातर इसकी इन्तेहा हत्या या आत्महत्या में हो रहती है। अब छोड़िए, इन बातों को। "जैसी करनी, वैसी भरनी। "
जो भी हो, बात बिस्तर की चल रही है और जिन्दगी में बिस्तर बड़ी जरूरी चीज है। दिन-भर के थके-माँदे व्यक्ति को रात में सोने के लिए ,थकान दूर करने के लिए, बिस्तर निहायत लाजिम है। तन्त्र-विद्या की भाषा में शिव प्रकाश हैं और शक्ति विमर्श -दिवा-रात्रि। 'चिद्विलास 'का वचन है--"सा निशा सकललोकमोहिनी "।महाशक्ति 'माँ 'है। माँ के आँचल में विश्राम है। अस्तु, बिस्तर चाहिए कि निद्रा-देवी के शीतल आँचल में विश्राम हो सके।
दुर्गासप्तशती का पाठ नवरात्र में करते हैं, तो तन्त्रोक्त रात्रिसूक्त का भी पाठ करते ही होंगे।
खूब ध्यान से पढ़िए समस्त सूक्त और खूब गहराई से गुनिए, तो मातृ-स्वरूपा रात्रि की महिमा किंचित हृदयंगम हो सके। यह एक गहन रहस्यपूर्ण विषय है और मैं इस के जगड्वाल में आपको ले जाना नहीं चाहता।
संस्कृत 'विष्टर 'ही फारसी में 'बिस्तर 'है। यों, संस्कृत में तल्प, शय्या आदि भी इसके पर्याय हैं।
सोचिए, अगर केवल दिन ही दिन रहता, रात न होती, तो क्या हश्र होता ?
मैत्रायणी संहिता में एक बड़ा ही मर्मन्तुद प्रसंग आया है और है चक्षुरुन्मीलक। पहले रात होती ही न थी ,केवल दिन रहता था ।
"यम की मृत्यु हो गई ,देवताओं ने कोशिश की कि यमी यम को भूल जाए। जब भी वे उसे सान्त्वना देने की कोशिश करते, वह कहती एक ही दिन के लिए तो उसकी मृत्यु हुई है। देवता मुश्किल में पड़ गए और सोचने लगे कि यही हाल अगर रहा, तो फिर यह कभी भी उसे भुला नहीं पाएगी ।सो, उन्होंने रात बना दी। उससे पहले दिन लम्बे हुआ करते थे, रात तब होती ही न थी। रात आने से यह हुआ कि आज के बाद कल और कल के बाद परसों, का सिलसिला शुरू हो गया और करते-करते लोग दुःखों को भूलने लग गए (1/5/12)।"
वाक़या ऐसा है कि घर में माङ्गलिक यज्ञ-विशेष का आयोजन था और उसके लिए मेरा ही शयन-कक्ष निर्धारित हुआ, फलतः मेरा बिस्तर दूसरे कक्ष में ले जाया गया, जहाँ पहले से एक गद्देदार पलंग बिछा था। गद्देदार बिस्तर से अब मुझे सख्त गुरेज है। सर्वंकषा नियति का कुछ ऐसा ही न्याय है।
संयोग से एक आत्मीय सज्जन पधारे, तो उम्मीद जगी कि आज रात पलंग का गद्देदार बिस्तर आबाद होगा। गोल कर रखे बिस्तर को मैं खोल ही रहा था कि अपना बैग लेकर वह उठ खड़े हुए यह कहते हुए कि एक संबंधी के घर मेरी दवा छूट गई है, सो जाना जरूरी है। मैं उनका मुँह ताकता रह गया।जब वह प्रस्थित हुए , तो जेहन में ग़ालिब का यह शेर बेसाख्ता उभर आया--
" घर में रहने को कहा औ कह के कैसा फिर गया ,
जितने अर्से में मेरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला। "
खैर ,कोई बात नहीं ,हाथ में आई हुई बाजी इसी तरह निकलती है, तो निकल जाए।
बिस्तर के भी अपने नसीब होते हैं। अब देखिए ,एक शायर का दिमागी फितूर कि बिस्तर को झाड़ने की इसलिए नौबत आ गई कि उस पर सोया हुआ प्राणी दिख नहीं रहा। कहीं माशूक के विरह में बिस्तर से इस कदर चिपक तो नहीं गया कि बिस्तर और उसमें कोई फर्क ही नजर नहीं आ रहा या कहीं वह गायब तो नहीं हो गया!चुनांचे, वह बिस्तर को झाड़ कर इस बाबत इत्मीनान कर लेना चाहता है--
"इन्तहा-ए-लागरी से जब नजर आया न मैं,
हँस के वो कहने लगे बिस्तर को झाड़ा चाहिए। "
ऐसी कवि-कल्पनाओं को मैं आकाश-कुसुमीय कहना चाहूँगा। हिन्दी के रीतिकालीन कवि बिहारी ऐसे मामलों में कुछ पीछे नहीं हैं ।नायिका विरह के ताप से सूख कर इस कदर चिपक गई कि मौत आई उसे लेने तो जहमत में पड़ गई। आँख से नायिका उसे सूझ नहीं पा रही ,तो वह चश्मा लगा कर देखने की कोशिश करती है और फिर भी वह नजर नहीं आती है।मौत को खाली हाथ वापिस होना पड़ता है और तलाश में उसे बार बार आना पड़ता है। --
"करी विरह ऐसी तऊ, गैल न छाँड़तु नीचु।
दीने हूँ चसमा चखनु, चाहै लहै न मीचु। ।"
हिंदी के जनवादी (populist)कवि के बतौर मशहूर त्रिलोचन शास्त्री का हाल देखिए--
"न बिस्तरा है, न चारपाई है,
जिन्दगी खूब हमने पाई है।
कल अंधरे में जिस ने सर काटा,
नाम मत लो, हमारा भाई है ।"
देखिए, कवि का सिरफिरापन कि सर कट जाने के बाद भी वह बोल पाने की स्थिति में है। कमाल है!
शेक्सपियर ने गलत नहीं कहा है---
"The lunatic, the lover and the poet
Are of imagination all compact. "
निदा फाज़ली का खयाल बड़ा मौजूँ है। बड़े-बड़े शहरों में जाते हैं, होटलों में खूब आरामदेह गद्देदार बिस्तर मिलते हैं, पर नींद नहीं आती। बिस्तर तो अपने घर का ही बिस्तर होता है--
" नई-नई आँखें हों तो हर मंजर अच्छा लगता है। कुछ दिन शहर में घूमे,लेकिन अपना घर अच्छा लगता है।
हमने भी सो कर देखा है नये-पुराने शहरों में
जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है। "
सोने को तो 'तृणतल्प 'पर भी सोना अच्छा लगता है, अगर किस्मत में ऐसा ही बदा हो। वनवास-क्रम में निषादराज गुह सीता-राम के रात्रि-विश्राम के लिए कुश-किसलयों 'की साँथरी 'रच देते हैं, जिस पर नाना संकटों से भरे वन में लक्ष्मण की पहरेदारी में सीता-राम शयन करते हैं--"गुह सँवारि साँथरी डसाई। कुस-किसलयमय मृदुल सुहाई। ।"सीता जी की अनुभूति में प्रियतम का साथ हो, तो साँथरी भी सैकड़ो कामदेवों की सेज के समान सुखद हो जाती है---"
"नाथ साथ साँथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई। ।"(देखिए, मानस-अयोध्याकाण्ड)। 'साँथरी' देश्य शब्द है और इसका प्रयोग लोकभाषा अवधी के अनुरूप सम्यक् सूझबूझ से किया है। यथोक्तपूर्व, बिस्तर के लिए संस्कृत का सबसे सटीक शब्द है 'उपस्तरण '।संस्तरण, आस्तरण, आदि भी तदर्थीय हैं। मेरे खयाल से 'संस्तरी' का लौकिक अपभ्रंश 'साँथरी 'है,जो बिस्तर के अर्थ में सर्वथा उपयुक्त है।
स्वयं तुलसीदास जी की अपने इष्ट देवता राम जी से फरियाद है कि उनकी सभी रातें बिस्तर लगाते ही गुजर गईं, कभी नींद-भर सो न सके--
"डाँसत ही गई बीति निसा सब कबहुँ न नाथ! नींद भरि सोयो (विनयपत्रिका, पद-245 ,डाँसना=बिस्तर लगाना।)।"
श्रम, शय्या, रात्रि और निद्रा--अभिन्नतया संबद्ध हैं। बहुत दिनों का जागा हुआ आदमी जिसकी नस-नस थकान से चूर हो और जो इसी कारण जमीन पर लुढ़क कर सो गया हो, तो उसके लिए नंगी जमीन शेष-शय्या से भी सुखद हो जाती है ।
इस प्रसंग में इक्ष्वाकुवंशीय मान्धाता-पुत्र महाराज मुचकुंद का संदर्भ अवलोकनीय है। देवासुर-संग्राम में इन्द्र ने उनकी सहायता प्राप्त की थी। बहुत दिनों तक जाग्रत् रह कर उन्होंने असुरों के विरुद्ध युद्ध किया था। इन्द्र को सेनापति के रूप में स्कन्द मिल गए, तो वह मनुष्य-लोक लौट आए और विश्राम के लिए एक पर्वत-गुफा में जा कर निबिड निद्रा में मग्न हो गए। उनके लिए तो गिरि-गुफा का कुट्टिम (फर्श)ही अत्यंत आरामदायक बिस्तर हो गया। किंतु, नींद पूरी हो पाए, यह उनके भाग्य में न था। प्रतिशोध के लिए कृष्ण का पीछा करते कालयवन वहाँ आ धमका और कृष्ण के भ्रम में मुचकुंद को लात मार दी। मुचकुंद की दृष्टि खुलते ही अग्नि-ज्वाला निकली जिसमें दग्ध होकर कालयवन राख का ढेर हो गया (पूरा संदर्भ भागवत-स्कन्ध 10 ,अध्याय 51 में द्रष्टव्य)।
फूलों का बिस्तर सबको नसीब नहीं होता, मेरे भाई!सबकी जिन्दगी फूलों का बिस्तर (Bed of roses)नहीं होती, ज्यादातर जिन्दगी काँटों का बिस्तर (bed of thorns) होती है।
अब देखिए, कुरु-वृद्ध महाप्रतापी भीष्म पितामह, जो बाहुबल ,योगबल और ज्ञानबल में अतुलनीय थे, उनको अन्त में कैसा बिस्तर मिलता है?दैव का क्रूर परिहास समझ के परे है। उनके शरीर का पोर-पोर तीखे बाणों से बिंधा है। तकिया भी उनके कहने पर बाण का ही लगा दिया है। शर-तल्प पर निपद्यमान (यत्र शेते नरश्रेष्ठः शरतल्पे पितामहः) भीष्म पितामह को जो यातना मिली, क्या उससे भी भीषणतर कोई दुर्दैव हो सकता है?भीष्म पितामह-जैसे महापुरुष की अन्त में ऐसी अकथ यातनापूर्ण दशा क्यों हुई?छः महीनों तक उत्तरायण की बाट जोहते उसी दशा में पड़े रहे।
महापुरुष होते हुए भी उनसे दैवदुर्विपाकवश अत्यंत गर्हित पाप हुआ था। पापी दुःशासन जब कुलवधू द्रौपदी का भरी सभा में लज्जा-हरण करने पर उद्यत था और किंबहुना, द्रौपदी उस समय एकवस्त्रा की अवस्था में थी ;उस समय भीष्म पितामह सर्वसमर्थ होते हुए भी अपने मुँह पर ताला लगा कर बैठे रहे। यदि वह उस अत्यंत कुलकलंककारी कुकृत्य के विरोध में उठ खड़े हुए होते, तो मजाल न थी कि दु:शासन दुस्साहस करता। दुर्दैव ने उनकी बुद्धि मार दी थी। दुःशासन यदि चीर-हरण का अपराधी था, तो भीष्म पितामह-जैसे सभासद् महज कबूतर की तरह आँखें भींच लेने से अवध्य नहीं हो गए थे। उसी पाप का फल था कि उन्हें शर-तल्प पर लेटना पड़ा।
तीन दिनों का आयोजन था, जो समाप्त हो गया और मेरी चौकी पूर्ववत् मेरे कक्ष में आ गई है ,जिसपर कंबल-दरी और खादी की सफेद चादर का बिस्तर बिछ गया है। अयुर्विज्ञानियों के अभिमत में कड़ा बिस्तर स्वास्थ्य के लिए उत्तम है। गद्देदार बिस्तर रोगों का घर है। लेहाजा, मैं अपने बिस्तर पर खुश हूँ।
मेरे दोस्तो! यह भूमि अमृतमय उपस्तरण (बिस्तर) है और आकाश अमृतमय अपिधान (ओढ़ना)है।
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।
ॐअमृतापिधानमसि स्वाहा।
फिर भी आदमी मरता है। इसकी वजह है, जिस पर बात आगे कभी। मेरी कलम अब आराम चाहती है, इसे इसका बिस्तर दे दूँ!
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