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मैं भी कभी अहंकार से परिपूर्ण था,

मैं भी कभी अहंकार से परिपूर्ण था,

ग़लतियों के पुतले के मानिन्द था।
सोचा विचारा बदलने की ठान ली,
अहंम् तज विनम्रता के अनुकूल था।


जब भी चाहा मैं किसी के काम आऊँ,
अहंकार आगे बढ़ कर रोक लेता मुझे।
संघर्ष होता अक्सर दिल और दिमाग़ में,
दुविधा में पड़ा वह सदा छोड़ देता मुझे।


बस यूँ ही उहापोह में ज़िंदगी उलझी रही,
विनम्रता राह में खड़ी राह मेरी तकती रही।
गम में दुखी सुख में ख़ुश एक रोज़ हो गया,
हर पल कदम दर कदम ज़िंदगी बदलती रही।

अ कीर्ति वर्द्धन
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