रिश्तों की बेल
जहां देखो रिश्तों की सूख रही है बेल,
रिश्तों में बस रह गया पैसों का खेल।
समय और सम्मान के अभाव ने,
क्षीण कर दिए रिश्तों के ये बंधन।
मानवीय संवेदनाओं रहित है हर कोई,
अब सब की भावनाएं मृतप्राय हैं होई।
प्रगाढ़ता भरा परिवार होते था इक बगिया,
भौतिकवाद की छाया ने,बना दी हैं दूरियां।
मिलना-मिलाना अब सब समाप्त हो गया,
रिश्ता मोबाइल का अब मोहताज हो गया।
मिलने वाले थे हर रोज़ मीठे पल,
अब सिर्फ बैंक के खातों का खेल।
महत्वपूर्ण था संयुक्त परिवार कभी,
अब तो विभाजित जी रहे हैं सभी।
परिवार रूपी इस विशाल वट वृक्ष को,
मैं और मेरा की निगल गई ये विष बेल।
रिश्तों की मिठास अब छूती नहीं दिलों को,
सिर्फ बैलेंस शीट्स की परवाह, जीने को।
आज़ खेल रहा हर कोई पैसों का खेल,
रिश्तों की अहमियत रहा उसमें है तोल।
समाज ने स्वीकारी पदार्थवाद की दासता,
पर हम ना भूलें, हमारे रिश्तों की महत्ता।
स्वरचित एवं मौलिक पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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