संतान की स्पृहणीय सफलता किंवा उत्कर्षपूर्ण उपलब्धि पर माता-पिता का इतराना व अहंकार से फूल उठना निहायत थोथा है।
डा• मेधाव्रत शर्मा, डी.लिट.
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
माता-पिता शरीर के जनक होते हैं, जीव के नहीं। अलबत्ता, इतना श्रेय जरूर है कि वे जीव की संसार-यात्रा के लिए वाहन (शरीर)का प्रबंध कर देते हैं, जो भी एक दैवकृत संयोग-मात्र है। कोई दूसरे माता-पिता भी शरीर-वाहन का प्रबंध कर ही सकते थे!
अगणित जन्मों के कर्माशय से संवलित जीव अनन्त पथ पर भ्रमणशील रहता है। कर्माशय विगत जन्मों के कर्म-प्रसूत संस्कारों का आधान है (Receptacle of the sum-total of the impressions ,good or evil, as pain-bearing obstructions, they obstruct the way to freedom of the soul-- Swami vivekanand)।
कर्माशय का जो अंश फलोन्मुख हो कर वर्तमान जन्म का निदान बनता है, वही 'प्रारब्ध 'कहलाता है। प्रारब्ध के अनुसार ही जीव के आमरण जीवन-क्रम का स्वरूप संघटित होता है--'सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगः (पातंजल योगसूत्र)।यहाँ ' जाति 'से तात्पर्य योनियों (84 लाख),species से है। वर्तमान जन्म में कर्म की जो स्वतंत्रता है, उससे नये कर्म-संस्कार बनते और कर्माशय में संचित होते हैं।
भारतीय धर्म-दर्शन-संस्कृति में पुनर्जन्मवाद अत्यंत वैज्ञानिक, सर्वथा तर्क-द्रढित प्रौढ़ सिद्धांत है। साधनहीन ठेलेवाले की या किसी सफाईकर्मी की संतान भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में स्पृहणीय सफलता प्राप्त करता है,उसे क्या कहेंगे? किंबहुना, एक ही माता-पिता की चार संतानों में कोई कलक्टर, कोई जुआड़ी, कोई डाकू, तो कोई शिक्षक बन जाता है, तो ऐसी वस्तुस्थिति का तार्किक सरलीकरण क्या होगा?
भगवत्पाद शंकराचार्य आठ वर्ष की अवस्था में ही चतुर्वेदी हो गए थे।उनके तर्कातीत चामत्कारिक व्यक्तित्व का ख्यापक श्लोक है--
"अष्टवर्षे चतुर्वेदी द्वादशे सर्वशास्त्रवित्।
"षोडशे तु कृतवान् भाष्यं द्वात्रिंशे मुनिरभ्यगात् ।।"
स्पष्टतः, ऐसे चमत्कृतिकर व्यक्तित्व का रहस्य -मर्म पुनर्जन्मवाद के आलोक में ही विवेच्य है। जन्मों की पारमार्थिक साधना व तपश्चर्या से इस प्रकार का प्रारब्ध घटित होता है। पाश्चात्य जगत् में मोजार्ट (1758-'91)का उदाहरण प्रख्यात है, जिसने आठ साल की अवस्था में ही ओपेरा रच कर दुनिया को अचंभे में डाल दिया था।
अस्तु, हर जीव अपने भविष्य का पूरा नक्शा लिए हुए संसार में आता है, जिसकेअनुरूप ही उसका समस्त जीवन-क्रम उद्घाटित होता है। इस प्रसंग में मेरे मानसपटल पर बेसाख़ता उभर रही हैं प्रसिद्ध नाटककार वि•वि • शिरवाडकर के 'नट-सम्राट 'की निहायत गौरतलब पंक्तियाँ-"आकाश का बोझ उठाने वाले दिग्गजों से पूछ कर देख। वे बतलाएँगे, कोई किसी का नहीं होता। अंतरिक्ष में भटकने वाली कोई आत्मा हमारी वासना की सीढ़ी से पृथ्वी पर उतरती है और हम समझते हैं, हम बाप हो गए, हम माँ हो गए। लेकिन झूठ, बिलकुल झूठ। हम केवल सीढ़ी हैं, केवल सीढ़ी (पृष्ठ-64)।"
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