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'संवेदनाहीन समाज'

'संवेदनाहीन समाज'

पंकज शर्मा
महाकाल के पवित्र और पावन नगर,
कन्या संग हुआ है बड़ा ही अनाचार,
बलात्कार पीड़ित अर्धनग्न - अबोध,
बालिका को लोग घंटों रहे थे दुत्कार,
ना ही सुनी थी व्यथा -कथा किसी ने,
ना ही सुना करूण क्रंदन - चित्कार।


आज समाज का क्या हुआ है हाल,
नैतिकता में समाज हुआ है कंगाल,
हमने तो खो दिए हैं मानवीय मूल्य।
मानवता तो मानों चाट रही है धूल,
चहुं ओर व्याप्त है असंवेदनशीलता,
हमारे संस्कारों की है पूर्ण विफलता।


अरे ! सोया हुआ है जमीर जगाये कौन?
बादल नहीं है यह धुआँ है, बताये कौन?
मालूम होता आ गये हैं मुर्दों के शहर में ,
उदासीनता ग्रसित इसां को जगाये कौन?
सभी मशगूल हैं अपने ही स्वार्थ साधने में,
मृतप्राय समाज को निंद्रा से जगाये कौन?


सब अपने स्वार्थ के पीछे भाग रहे हैं।
हर इंसान अब अपने लिए जी रहा है,
ये मैं और मेरा हमें कहाँ ले जा रहा है।
चाहते हैं कि, समाज जीवंत हो जाए,
तो हमें अपने ही भीतर विद्यमान इस,
जमीर को फिर जगाने की जरूरत है।


समाज में जाग्रत हो मानवीय संवेदनाएं,
सामंजस्य और सहयोग की जरूरत है।
अगर परिकल्पना है एक आदर्श समाज,
सामाजिक दायित्व निभाने की जरूरत है,
बचना हो अगर शोषण और अत्याचार से, 'कमल' एक जीवंत समाज की जरूरत है।
स्वरचित एवं मौलिक पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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