Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

क्षेत्रीय भाषाएं हिंदी के लिए बोझ नहीं : प्रो. अरुण

क्षेत्रीय भाषाएं हिंदी के लिए बोझ नहीं : प्रो. अरुण

  • वरिष्ठ पत्रकार श्रवण कुमार की पुस्तक *वो कॉमरेड स्स्स्सा...का हुआ लोकार्पण*

पटना से दिव्य रश्मि संवाददाता जितेन्द्र कुमार सिन्हा की खबर |

क्षेत्रीय भाषाएं हिन्दी के लिए बोझ नहीं है। तमिल, मलयालम, भोजपुरी, मैथिली हो या कोई भी क्षेत्रीय भाषा। ये हिन्दी का संवाहक बन सकती हैं। हिन्दी की जीवंतता तभी बनी रह सकती है, जब हम जितनी भी स्थानीय भाषा है उसको भी बल दें. हिन्दी दिवस पर साहित्य इन सिटी व यूथ हॉस्टल एसोसिएशन द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित कार्यक्रम में पूर्व सांसद प्रो. अरुण कुमार ने ये बातें कही।

उक्त अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार श्रवण कुमार की पुस्तक वो कॉमरेड स्स्स्सा... का लोकार्पण किया गया। पुस्तक बिहार की तीन दशक की राजनीतिक परिस्थियों पर आधारित है।
समारोह में मौजूद जेडी वीमेंस कॉलेज की जनसंचार विभाग की विभागाध्यक्ष आभा रानी ने कहा कि नयी पीढ़ी को इंगलिश के बजाय हिन्दी को प्राथमिकता देना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत प्रत्यूष ने पत्रकारों को निर्भीकता से कार्य करने का अगाह किया। अतिथियों का स्वागत यूथ हॉस्टल एसोसिएशन के अध्यक्ष मोहन कुमार ने किया। विषय प्रवर्तन पत्रकार आलोक नंदन ने किया। धन्यवाद ज्ञापन पूर्व अध्यक्ष, बिहार श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के जितेन्द्र कुमार सिन्हा ने किया। कार्यक्रम का संचालन मृणालिनी ने किया।

डॉक्टर शाह अद्वैत कृष्णा, प्रेम चौधरी, सुधीर मधुकर, मुकेश महान समेत अन्य वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार मौजूद रहे। कार्यक्रम में 'सोशल मीडिया : हिंदी के लिये चुनौती? ' विषय पर परिचर्चा का आयोजन भी हुआ। पत्रकारिता की छात्राओं ने इस अवसर पर सवाल भी किये, जिसका जवाब पत्रकारों ने दिया।

पुस्तक के बारे में :
बिहार की राजनीति का सच है 'वो कॉमरेड स्स्स्सा'
हिन्दी उपन्यास 'वो कॉमरेड स्स्स्सा' बिहार की राजनीति का सच है। वो कॉमरेड स्स्स्सा तीन दशक से अधिक समय से वर्ग संघर्ष के नाम पर जातिवाद का नंगा नाच कर दर्जनों नरसंहारों में खून की नदियां बहाने वाले कॉमरेडों और सत्ता व राजनीति संरक्षित वीभत्स चेहरों की नकाब उतारती कहानी है। वरीय पत्रकार श्रवण कुमार ने 1990 से अभी तक के राजनीतिक घटनाक्रमों को मनोरंजक तरीके से उपन्यास के रूप में कलमबद्ध किया है। उपन्यास में राजनीतिक स्थितियों-परिस्थितियों का चित्रण बेहद ही संजीदगी से किया गया है।
उपन्यास में बिहार की राजनीति के विद्रूप सच को रेखांकित किया गया है। जात और जमात अरसे से बिहार की राजनीति के रग-रग में बसा हुआ है। नक्सलवाद और जातीय सेनाओं की गरजती और बारूद उगलती बंदूकों से राज्य का ज्यादातर जिला लाल इलाका बन गया। वर्ग संघर्ष के नाम पर वामपंथी पार्टियां नक्सलवाद की सरपरस्त बनीं, तो जवाब में उतरे जातीय सेनाओं को भी राजनीति का संरक्षण मिला। नक्सलवाद और जातीय सेनाओं के बीच शासन पर पकड़ बनाये रखने के लिए बाहुबलियों को भी सत्ता का वरदहस्त प्राप्त हुआ।

कॉमरेड मंडल दा नक्सलियों के सहारे वाम पार्टी का दबदबा कायम रखने को आतुर हैं। व्याकुलता इतनी है कि नक्सलियों द्वारा दस्ते में शामिल लड़कियों का शारीरिक शोषण भी उन्हें गलत नहीं लगता। राजनीतिक चरित्र ऐसा कि सत्ता के करीब रहने के लिए यादव जी जैसे मुख्यमंत्री का तलवा तक चाटने को तैयार, तो कभी दुत्कार दिये जाने पर वाम पार्टी को सरकार का सबसे मुखर विरोधी साबित करने को आमादा। यादव जी की राजनीति तो खुलकर सवर्णों का विरोध पर ही टिकी है। नक्सलियों और यादव जी की सवर्ण विरोधी राजनीति का प्रतिकार करने के लिए मुखिया जी की सेना सामने आती है। राजनीति के तीसरे कोण पर खड़ी पार्टी परोक्ष रूप से मुखिया जी की सेना के साथ है। इन स्थितियों- परिस्थितियों में अपने-अपने वर्चस्व के लिए नक्सलियों- बाहुबलियों और मुखिया जी की सेना संहार दर संहार कर रही है। नक्सलियों द्वारा किये गये ऐसे नरसंहार में ही अपनों को खो चुके होनहार और प्रतिभावान छात्र रणविजय के दिल में बदले की आग जलती है। बदला लेने का उसका तरीका अनूठा है। मुखिया जी की सेना में शामिल होने का ऑफर ठुकराते हुए उसने बीटेक करने के बाद यूपीएससी क्रैक किया। फिर भारतीय पुलिस सेवा ज्वाइन कर नक्सलवाद के खात्मे का संकल्प लिया। दूसरी ओर रणविजय के बचपन का साथी जतिन कॉमरेड मंडल दा के बहकावे में आकर अपने बाप पर ठाकुर भंवर द्वारा किये गये जुल्म का बदला लेने नक्सली बन जाता है। जतिन की बहन रधिया को भी मजबूरी में नक्सलियों के दस्ते में शामिल होना पड़ा। नक्सल दस्ते में रहते रधिया को कॉमरेडों की गंदी नीयत और दोहरे चरित्र का भान होता है। रधिया किसी मजबूरी में दस्ते में शामिल हुई लड़कियों को नक्सली मांद से आजाद करने की लड़ाई लड़ती है। वक्त करवट बदलता है और रणविजय उसी गढ़वा जिले का एसपी बनकर आता है, जो नक्सलियों का सबसे बड़ा गढ़ है। जतिन और रधिया के नक्सल दस्ता का अड्डा भी यहीं बुढ़वा पहाड़ पर है। फिर शुरू होता है टकराव और संघर्ष. रणविजय, जतिन और रधिया अपने-अपने मकसद के साथ संघर्ष करते हैं। जमींदारों से संघर्ष करते हुए ठाकुर भंवर का अंत जतिन का मकसद है, तो नक्सली दस्ते में शामिल दैहिक शोषण को मजबूर लड़कियों को आजाद कराना रधिया का लक्ष्य। दूसरी ओर रणविजय ने नक्सलवाद को खत्म करने का संकल्प लिया है। रणविजय के संकल्प में उसकी आईएएस मित्र दीपा सूरी का भी साथ मिलता है। सभी के रास्ते अवरोधों और संघर्षों से होकर गुजरते हैं।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ