नवरात्र में कैसे करें दुर्गासप्तशती का पाठ?

नवरात्र में कैसे करें दुर्गासप्तशती का पाठ?

श्री मार्कण्डेय शारदेयः
‘दुर्गा-सप्तशती’ भगवती का वाङ्मय स्वरूप है।इसकी महिमा में बहुत सारी बातें कही गई हैं।यह समस्त सांसारिकताओं का महौषध है। इसके प्रथम प्रयोक्ता शिवजी ही हैं।नवरात्र में नौ दिनों तक पूजास्थल पर इसका पाठ होता है।इसमें कुल 13 अध्याय, 3 चरित्र (1.प्रथम-पहला अध्याय, महाकाली, 2.मध्यम-2, 3, 4 अध्याय, महालक्ष्मी तथा 3. उत्तर- 5 से 13 अध्याय-- महासरस्वती) और 700 मन्त्र हैं।इसके अतिरिक्त इसके पूर्वांगों में कवच, अर्गला, कीलक (एक यह भी विधि है -अर्गला, कीलक और इसके बाद कवच), रात्रिसूक्त, न्यास एवं नवार्ण का जप हैं।पुनः इसके उत्तरांगों में नवार्ण का जप, देवीसूक्त, तीनों रहस्य (प्राधानिक, वैकृतिक, मूर्ति रहस्य) हैं।एक बार व एक आवृत्ति-पाठ में इतने परम आवश्यक हैं।नहीं तो पाठ अधूरा माना जाएगा। इसके अलावे पाठ के पहले शापविमोचन और रहस्यों के पाठ के बाद कुंजिका-स्तोत्र एवं क्षमाप्रार्थना का पाठ करना ही चाहिए।(यह सामान्य पाठविधि है।)
जो लोग नित्य इतना पाठ नहीं कर सकते, उन्हें पूर्वांगों और उत्तरांगों का नित्य पाठ करना ही है, इसके अतिरिक्त दुर्गाशप्तशती के अन्तर्गत पहले, चौथे एवं सातवें दिन केवल प्रथम चरित्र (1अध्याय) का, दूसरे, पाँचवे तथा आठवें दिन मध्यम चरित्र (2 से 4 अध्याय) का और तीसरे, छठे एवं नौवें) दिन (5से13 अध्यायों) का पाठ करें।इस विधि से नवरात्र में पाठ की तीन आवृत्तियाँ हो जाती हैं।
यदि इतना भी सम्भव न हो सके तो सम्पूर्ण पाठ को नौ दिनों में बाँट कर एक आवृत्ति ही करें।इसका क्रम इस तरह रखें-- (1)पूर्वांग, (2)प्रथम अध्याय, (3) द्वितीय-तृतीय अ., (4) चतुर्थ अ. , (5) पंचम-षष्ठ-सप्तम-अष्टम अ. , (6) नवम-दशम अ. , (7)एकादश अ. , (8)द्वादश-त्रयोदश अ. तथा (9)उत्तरांग पाठ।इस क्रम से भी एक ही पाठ सम्पूर्ण हुआ, आधा-अधूरा नहीं।
यदि इतना भी सम्भव नहीं हो तो नित्य पूर्वागों-उत्तरांगों के साथ केवल मध्यम चरित्र (2से4अध्यायों) का पाठ करें।इतना भी न हो सके तो केवल ‘सप्तश्लोकी दुर्गा’ का ही पाठ करें। अभ्यास कर संस्कृत में ही पाठ करें, क्योंकि उसी का ध्वन्यात्मक, तान्त्रिक एवं मान्त्रिक महत्व है।भगवती की महिमा का सहज बोध होने से हिन्दी में पाठ भी पुण्यदायक है।
पवित्र पुस्तक को जमीन पर रखकर या हाथ में लेकर न पढ़ें।कभी भी आधा-अधूरा पाठ न करें और अध्याय के पूरा होने से पहले किसी से वार्ता न करें, न आसन छोड़ें। ऐसा करना यदि अत्यावश्यक हुआ तो फिर से वह अध्याय शुरू करना होगा।
पूजा-पाठ पूर्ण होने पर भगवती को अर्पण कर दें-- ऊँ दुर्गार्पणम् अस्तु। स्वयं करें तथा अपने यहाँ पाठ करनेवाले पण्डितजी से भी ऐसा ही करने का अनुरोध करें।
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