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रिवाज़ —

रिवाज़ —

रहते थे एक घर में, परिवार एक साथ,
अकेले रहने का अब, चल गया रिवाज़।


टूटने लगे हैं घर, जब से गली गाँव में,
बच्चों के मन से बुजुर्गों का, मिट गया लिहाज।


दीवार खिंची आँगन में, मन भी बँट गए,
जब से अलग चूल्हे का, चल गया रिवाज।


दीवारें क्या खिंची, माँ-बाप बँट गए,
बताने लगे हैं बच्चे, अब खर्च का हिसाब।


मुश्किल है आजकल, बच्चों को डांटना,
देने लगे हैं बच्चे, हर बात का जवाब।


दिखते नहीं हैं बूढों के भी, बाल अब सफ़ेद,
लगाने लगे हैं जब से, वो बालों में खिजाब।


दौलत की हबस ने “कीर्ति, कैसा खेल खेला,
बदल गया है आजकल, हर शख्स का मिजाज।

डॉ अ कीर्तिवर्धन
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