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*सत्ता- लोलुपों पर विहंगम दृष्टि*

सत्ता- लोलुपों पर विहंगम दृष्टि

कान खोलकर सुनो मान्यवर,
जिस-जिस से हाथ मिलाए हो।
वे सब दागी हैं, धूर्त, भ्रष्ट हैं,
जिन्हें एक मंच पर लाए हो।।
अहंकारी, मतिभ्रमित सभी हैं,
सत्तासुख के शिखर चढ़े हैं।
प्रेम, दया, करुणा,निष्ठा और
न्याय- धर्म से दूर खड़े हैं।।
सिद्धांतहीन चिंतन विचार,
दिखता न किंचित सद्व्यवहार।
आदर्श रहित मौका परस्त,
क्या ऐसे में लड़ोगे आर-पार?
किसी में नहीं उत्साह दिखता,
कौन वहाॅं तुम्हें खास दिखता।
कहाँ मानवता के गुण-धर्म तेरे,
बस हर ओर सर्वनाश दिखता।।
हर तथ्यहीन बातों पर तो,
सक्रियता गंभीर दिखाते हो।
व्यापक जनहित की बातों पर,
क्यों नाक-भौं सिकुड़ाते हो।।
अल्पकालिक सत्तासुख खातिर ,
कम्युनल को सेकुलर बतलाते हो।
जो पृथक राष्ट्र का स्वप्न देखते ,
उनको सहर्ष गले लगाते हो।।
अबतक जो वार किया तूने ,
जो तीर चलाया व्यर्थ गया ।
जो शक्ति, सामर्थ्य दिखाया,
पूछो विवेक से क्या पाया।।
डॉ.विवेकानंद मिश्रा,डॉ.विवेकानंद पथ गोलबागिचा,गया(823002)
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