अच्छा संग अच्छा बनूॅं
अच्छा संग अच्छा बनूॅं ,बुरे संग बुरा बारंबार ।
जीवन में विरोध तो होगा ,
एक दिन बनेगा हरिद्वार ।।
बुरा बनूॅं अपराधी नहीं ,
विनती करता रहूॅं हर बार ।
एक से कभी दो बनूॅंगा ,
दो से कभी बनूॉंगा चार ।।
अच्छे छोड़ मैं आगे बढूॅंगा ,
घुस जाऊॅंगा बुरों के भीड़ में ।
बनूॅंगा मैं होम्योपैथिक दवा ,
घुस जाऊॅंगा सबके पीड़ में ।।
उन्हें भी दिखाऊॅंगा नेक मार्ग ,
अच्छाईयों में उन्हें लाऊॅंगा ।
कृपा हुई यदि रामचंद्र की तो ,
अयोध्या बना दिखलाऊॅंगा ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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