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बहुओं- सी आशाएँ

बहुओं- सी आशाएँ

डॉ रामकृष्ण मिश्र

आतीं सज कर।
किन्तु अदृश्य हो जातीं
अवगुंठित कर।।

अभिलाषाएँ अपनी
सोचती रहीं ं।
हार- पार मुद्राएँ
कोशती रहीं।।
भावी स्थितियों के
उखड रहे पर।।


उलझे नि:श्वासों की
कहानी अलग
कही हवा प्रति शोधी
भी रही सुलग।।
कलही बैताल गया
आँगन पसर।।


कोलाहल बाँटता
रहेगा दस्तूर।
संकोची शान्ति पाठ
होगा मजबूर।।
अपनी विक्षिप्ति के
न बोल हैं मुखर।।
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डॉ राकृष्ण
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