"वक़्त का इश्क"
वक़्त भी क्या इस इश्क में खो गया,चलता रहता, कभी स्थिर होता ही नहीं?
उसके इश्क से ये दुनिया भी है हैरान,
क्योंकि कभी किसी का साथ देता ही नहीं।
वह बस खोया रहता है, उस इश्क में,
जिसकी कोई भी परिभाषा है ही नहीं।
दिन-रात दौड़ता है, थकता नहीं,
पल-पल बदलता है, और रुकता ही नहीं।
चांद-सितारों से पूछता है,
ये कैसा इश्क है, जिसका कोई पता ही नहीं।
सूरज से पूछता है,
ये कैसा इश्क है, जो कभी ढलता ही नहीं।
फूलों से पूछता है,
ये कैसा इश्क है, जो कभी मुरझाता ही नहीं।
बादलों से पूछता है
ये कैसा इश्क है, जो कभी बरसता ही नहीं
वक़्त भी किसी के इश्क में मरा जा रहा है,
# 'कमल,
इतना बेचैन रहता है कहीं ठहरता ही नहीं।
स्वरचित एवं मौलिक पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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