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मैं सबसे कम हूॅं

मैं सबसे कम हूॅं

समस्त विद्वजन बहुत ज्ञानी ,
किंतु मैं सबसे बहुत कम हूॅं ।
सारे विद्वजन ही श्रेष्ठ हमारे ,
सबके आगे मैं सदा नम हूॅं ।।
काव्य में मैं रत रहता हूॅं सदा ,
जैसे लगता है मैं ही रम हूॅं ।
काव्य से बिछड़ता जब भी मैं ,
तब लगता जैसे मैं ही ग़म हूॅं ।।
बीमार हो जाता मैं जब भी ,
तब लगता जैसे मैं ही यम हूॅं ।
नहीं आता मस्तिष्क में जब ,
तब लगता जैसे मैं ही तम हूॅं ।।
खो जाता जब काव्य में मैं भी ,
तब लगता जैसे हुआ बेदम हूॅं ।
बहुत अजीब लगता मुझे जब ,
लिखने में मैं जाता‌ ही थम हूॅं ।।
चले कलम जब धारा प्रवाह ,
लगता ऐसे जैसे मैं ही दम हूॅं ।
कुछ लिख अंटकता जहाॅं भी ,
लगता ऐसे जैसे गिरा धम हूॅं ।।
कभी कलम चल जाती ऐसे ,
जैसे बीच हाट पटका बम हूॅं ।
रहता नहीं हृदय में मैं हमारे ,
पता नहीं मैं सम या विषम हूॅं ।।
मैं भी होता जब सबके जैसा ,
मैं निज रूप कर लेता विराट ।
मैं भी होता तब ऊॅंची श्रेणी में ,
मैं भी कहलाता काव्य सम्राट ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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