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धर्म के नाम पर

धर्म के नाम पर

धर्म की आड़ में हो रहा राजनीति का खेल चहुं ओर,
क्या भक्ति एवं आध्यात्म ही है अब मानव की मंजिल?
क्या सेवा की ही है भावना, क्या है असल स्वरूप,
या एकाधिकार एवं आधिपत्य का, हो रहा है खेल?

क्यों व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति का साधन बना रहे,
कब्जों के इस युद्ध में भगवत-भक्ति से दूर जा रहे।
कलि काल में आध्यात्मिक उद्देश्य कहीं हो गए गुम,
राजनीति का यह अनाचार क्यों कर रहे हो तुम?

कलियुग की पहचान है, "कमल" यह है कटु सत्य,
भक्ति को कारोबार बनाया यह मानव का दुष्कृत्य।
समय है सोचने का, धार्मिक उद्देश्य पूर्ण करोगे कब,
सच्चे भगवत् श्रृद्धा भाव से ही तर सकते हम सब।
इस कविता को लिखने का हमारा मुख्य उद्देश्य है कि हमारे मठों, पूजा और धार्मिक स्थलों का संरक्षण करने वाले संतों, मठाधीशों, और सनातनी हिन्दू जनमानस के भीतर कालांतर में एकाधिकार और आधिपत्य की भावना को रोकना है, जो धर्म के प्रति गिरती हुई आस्था का कारण बन रहा है। हम सभी से निवेदन है कि धर्म को व्यवसाय नहीं बनाएं, न उसे अपनी आजीविका के रूप में देखें, और न इसे अपनी व्यक्तिगत स्वार्थ या महत्वकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बनाएं
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