दशहरा
नकली राम नकली रावण ,रामलीला तुम गह रहे हो ।
मन छिपाए पड़े हो रावण ,
राम की लीला कह रहे हो ।।
कह रहा रावण की पुतला ,
हमें क्या तुम मार रहे हो ?
मैं तो मरा पड़ा हूॅं कब से ,
अब क्या हमें ताड़ रहे हो ?
हमें तो मारा था राम ने ही ,
हम जीवन से मुक्त हुए ।
हमें तो विष्णु धाम मिला ,
तुम तो हमसे ही युक्त हुए ।।
तुम जला रहे मेरा पुतला ,
मैं तो बैठा हूॅं तेरे मन में ।
मैं तो तेरे मन में ही बैठा ,
तुम मुझे जला रहे रण में ।।
स्वयं था मैं विद्वान पंडित ,
मैं ही संस्कृत में अस्मि हूॅं ।
प्रतिवर्ष जलाते हो ऐसे ,
जैसे मैं विजयादशमी हूॅं ।।
जलाते रहो नित्य रावण ,
यह रावण नहीं जलेगा ।
जब मिटेगा मन का मैल ,
रावण भी तभी जलेगा ।।
अहंकार मन से निकालो ,
ईर्ष्या भी निकल जाएगा ।
रावण भी तभी जलेगा ,
विजयादशमी हो जाएगा ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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