ओस बुनी धरती पर
डॉ रामकृष्ण मिश्र
ओस बुनी धरती पर
ओस बुनी धरती पर
गीत लिखे चाँदनी।।
झंझा के मंद हुए
उफनाते जोश
नदियों की धाराएँ
धार गयीं होश
छिपती सी गलियों में
हवा सम्मार्जनी।।
तट पर अध्यात्म बैठ
घीस रहा चंदन
मंदिर के घंटे से
उछल रहे वंदन।।
फूल बाँट रहे गंध
नि:स्वार्थ पावनी।।
फसलों के आँगन में
आशा पहुनाई
रेत भरे साहस पर
मनहर बधाई।।
शारदीय आँचल की
कामनाएँ श्रावणी।।रामकृष्ण
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उफनाते जोश
नदियों की धाराएँ
धार गयीं होश
छिपती सी गलियों में
हवा सम्मार्जनी।।
तट पर अध्यात्म बैठ
घीस रहा चंदन
मंदिर के घंटे से
उछल रहे वंदन।।
फूल बाँट रहे गंध
नि:स्वार्थ पावनी।।
फसलों के आँगन में
आशा पहुनाई
रेत भरे साहस पर
मनहर बधाई।।
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