जो सोयेगा वो सब कुछ खोयेगा
"नींद तो नींद है, रस्ते में भी आ जाती है", "आंखों में नींद कहां" तथा "नींद न देखें टूटी खाट" जैसी उक्तियां हमें सोने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। हम "घोड़े बेचकर" सो भी जाते हैं। जबकि करोड़ों लोग जाग रहे होते हैं। प्रकृति जाग रही होती है। हमारी खुद की धड़कनें जाग रही होती हैं। तनिक सोचो, हम क्या क्या देखने, सुनने और समझने से वंचित रह जाते हैं निगोडी नींद के चक्कर में!
माना कि नींद एक स्वाभाविक क्रिया है, आवश्यक भी है। यह देती भी है हर्ष-विषाद युक्त क्षणिक सपने जिनका सत्य से कोई सरोकार नहीं। बेमोल, बेकार, बेकाम और बेआधार। ......और लेती क्या है! खगोल और भूगोल की गति से हम अनभिज्ञ रह जाते हैं। प्रकृति के परिवर्तन के हम साक्षी नहीं बन पाते। वृद्धि और विकास हमें पीछे छोड़कर आगे निकल जाते हैं। अपनों के दुख और सुख में भागीदारी और अनुभूति से हम वंचित रह जाते हैं। वृद्धों का पल पल मृत्यु के समीप जाना हम नहीं देख पाते। शिशुओं की किलकारी से अनजान रह जाते हैं हम। किटकिट करते गुजरते समय की रफ्तार भी नहीं समझ पाते हम। स्वयं को भी भूलकर स्वयं से परे हो जाते हैं हम। छंटाक भर पाने के बदले मन भर खो देते हैं। इसलिए अब नींद के आगोश में जाने से पहले एक बार उसकी कीमत जरूर सोच लें।
डॉ अवधेश कुमार अवध
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