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‌महर्षि बाल्मीकि


महर्षि बाल्मीकि

थे नहीं पहले महर्षि बाल्मीकि ,
पारिवारिक नाम था रत्नाकर ।
पारिवारिक पोषण थे वे करते ,
छिन झपट लूटपाट अपनाकर ।।
एक बार निकले थे नारद मुनि ,
पूरी पृथ्वी का भ्रमण करने को ।
घेर लिया वह नारद मुनि को भी ,
किंतु नारद जी कहाॅं डरने को ।।
रत्नाकर बोला दे दो सब कुछ ,
जो कुछ भी अब तेरे पास में है ।
सुबह से नहीं मिला है कुछ भी ,
अब रत्नाकर भी तेरे इस में है ।।
बोले नारद मैं तो साधू महात्मा ,
मेरे पास तुम्हें भी क्या मिलेगा ?
किंतु छोड़ दो ये हत्या डकैती ,
माॅं धरा का भी हृदय खिलेगा ।।
कर रहे तुम यह हत्या डकैती ,
तुम्हें कभी क्या ये फलित होंगे ?
कर रहे पाप जो तुम ये निरंतर ,
परिवार में पाप में शामिल होंगे ?
नारद मुनि को वह पेड़ में बाॅंधा ,
गया सबसे पूछने हेतु वह घर ।
सबने किया इस पाप से इंकार ,
तैयार न कोई पाप लेने को सर ।।
खुला मस्तिष्क तब रत्नाकर का ,
आकर गिरा नारद मुनि के पैर ।
किया मुक्त वह बंधन से पहले ,
प्रार्थना किया अब न मेरा खैर ।।
ले चले रत्नाकर को मुनि नारद ,
रामा रामा का तब ये मंत्र दिया ।
रामा रामा भी बोलने न आया ,
मारा मारा का उच्चारण किया ।।
किंतु मारा मारा ही रटते रटते ,
रामा रामा भी बोलने आ गया ।
नारद मुनि का यह राम मंत्र भी ,
रत्नाकर के अंतर्मन में छा गया ।।
हुआ उनका तब राममय जीवन ,
राम का मंत्र तन मन में भा गया ।
रत्नाकर से हो गए वे बाल्मीकि ,
बाल्मीकि नाम गजब ढा गया ।।
बाल्मीकि जब से हो गए तब से ,
राम को इतना मन में वे पाले थे ।
रामावतार होने से बहुत पहले ,
कलम से रामायण लिख डाले थे।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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