गाॅंव देहाती
क्यूॅं कहते गाॅंव को गॅंवार देहाती ,क्या प्यार बरसता तेरे शहर में ।
जहाॅं पर केवल पराए हैं बसते ,
डूबे रहते सदा ये शहर कहर में ।।
यत्र तत्र से आ लोग बसे जहाॅं पे ,
घुसे रहते जो सदा निज घर में ।
पैर में भी लग जाती हैं बेड़ियाॅं ,
परायापन घुसा रहता है सर में ।।
कहाॅं किसके घर क्या हुआ है ,
यह किसी को होता तलब नहीं ।
आग लगे या कोई मर भी जाए ,
किसी को होता है मतलब नहीं ।।
एक बार गाॉंव में जाकर देखो ,
पूछनेवाले भी कई मिल जाएंगे ।
स्वागत भावों की है कमी नहीं ,
हृदय भी कली सा खिल जाएंगे ।।
बस रहा अभी वायुसेना स्टेशन ,
तेरे गाॅंव होते मेरा जलवा होता ।
जन जन ही सब होते ये हमारे ,
सबके मुॅंह प्रेम का हलवा होता ।।
शहर गाॅंव होते धरा गगन सम ,
शहर तो बसता है शीर्ष गगन में ।
गाॅंव में हमसब हर एक से जुड़े ,
धरा पर बसनेवाले प्रेम मगन में ।।
तेरे शहर में सुविधाएं हैं अधिक ,
क्या गाॅंवों जैसी खुली हवा है ?
शहरी लोग गरम होते हैं जल्दी ,
जैसे अग्नि पर चढ़ा गर्म तवा है ।।
गाॅंव के लोग जल्द गरम न होते ,
गर्म होते तो जल्द जाए न क्रोध ।
शहर से सयाना होता है देहाती ,
सबको होना चाहिए यह बोध ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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