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स्वभावच्युत हिन्दुओं का चिन्तन हिन्दू चिंतन नहीं है:-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

स्वभावच्युत हिन्दुओं का चिन्तन हिन्दू चिंतन नहीं है:-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

देह और भौतिकता को ही मूल मानने की यूरो ईसाई परंपराओं के प्रभाव से हिन्दुओं के कुशिक्षित वर्ग में जो सबसे बड़ी भ्रांति उत्पन्न हो गई है, वह यह है कि उन्हांेने मान लिया है कि मजहब की आड़ में तरह-तरह के कुकर्म करने वाले लोगों के शासन से तथा एंग्लो-ईसाई समुदाय के शासन से और भारतीय विद्या परंपरा के व्यवस्थित दमन से जो वर्तमान कुशिक्षित हिन्दुओं का कामचलाऊ मन बना है, वही स्वाभाविक रूप से हिन्दू चिन्तन करने वाला मन है।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि पूरी तरह एंग्लो ईसाई प्रेरणा और मान्यताओं तथा संरचनाओं वाला राज्य आधुनिक शिक्षित हिन्दुओं के बड़े वर्ग ने उत्साह पूर्वक अपना रखा है और उसे ही वह भारतीय राज्य मानते हैं। इतना ही नहीं, उसमें यदि अन्य पार्टियों से थोड़ा अधिक हिन्दुत्व के अनुकूल किसी दल का शासन हो जाये, तो उसे हिन्दू राज्य ही मानते हैं। उसे चला रहे लोगों को और उसका समर्थन कर रहे संगठनों को हिन्दू ज्ञान परंपरा के नये परिवर्तित स्वरूप से प्रेरित और संचालित मान लिया जाता है।
परन्तु यह तो अनर्थ है। यह सही है कि अंग्रेजों की योजना यही थी। उन अंग्रेजों की जो चाहते थे कि धीरे-धीरे हिन्दू हमारी तरह ही मान्यताओं और विचारों वाले जो जायें और स्वयं को हिन्दू कहते हुये भी अपनी परंपरागत सनातन ज्ञान परंपरा को कालबाह्य मानकर त्याग दें तथा पूरी तरह हमारी रंग में रंग जायें। जिससे कि भारत जैसे अत्यन्त समृद्ध और विराट वैविध्य वाले साधन स्रोतों से सम्पन्न विशाल क्षेत्र में राज्य के द्वारा ऐसी नीतियाँ बनायी जाती रहें और व्यापार तथा विनिमय के ऐसे नियम बनाये जाते रहें जिनसे हमें लाभ हो और हिन्दू समाज के हमसे प्रभावित लोग इसे ही अपनी भी उन्नति और प्रगति मानें तथा इसमें गौरव का अनुभव करें।
सत्य इससे नितांत विपरीत है। यह सही है कि अंग्रेजों तथा अन्य यूरोपीय समुदायों ने विश्व भर मंे 100-150 वर्षों तक यही प्रयास किया है कि संसार के सभी अन्य समाज अपना स्वभाव और स्वधर्म त्याग कर हमारे जैसा बनने को ही अपनी प्रगति और उत्कर्ष मानने लगें। इस विषय में उन्हांेने यह रणनीति भी अपनाई है कि वे समाज अपनी पहचान को नाम भर के लिये बनाये रखें ताकि उनके अपने समाजों में उनकी प्रतिष्ठा बनी रहे। परंतु ज्ञान, विश्वदृष्टि, जीवनदृष्टि, जीवनशैली, मान्यतायें, आस्थायें और सत्ता तथा परमसत्ता संबंधी बोध - सब कुछ को त्याग देने के बाद भी आधुनिक शिक्षित हिन्दुओं द्वारा हिन्दुत्व का ही नया रूप होने का दावा प्रामाणिक नहीं है। यदि अपने समाज के प्रति यह बोध ही नष्ट हो जाये कि राज्य का मुख्य कर्तव्य समाज की अपनी परंपराओं, ज्ञानधाराओं और मान्यताओं का संरक्षण है तो फिर ऐसे समुदाय को उस समाज का स्वाभाविक प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता। रूपांतरित समुदाय ही उन्हें माना जायेगा। इसमें केवल भौतिक और ऊपरी परिवर्तन की बात नहीं है। क्योंकि आधुनिक राज्य और आधुनिक राजनैतिक दल केवल भौतिक या ऊपरी रूप से भारत की राज्य परंपरा से भिन्न नहीं हैं अपितु वे राज्य के द्वारा समाज को बलपूर्वक रूपांतरित करना और हिन्दू समाज की ज्ञान परंपरा को भी रूपांतरित करते हुये समाज का शासन करना अपना कर्तव्य मानते हैं। इस रूप में वे प्रत्येक व्यक्ति के भीतर विद्यमान ईश्वरीय अंश (चिदंश) की सत्ता नहीं मानते। वे स्वयं को ही परम सत्ता का प्रतिनिधि मानते हैं और अन्यों को अपने मत के अनुसार शासित करना अपना कोई दैवी अधिकार मानते हैं। यह पूरी तरह ईसाई धारणा है। भारत के वर्तमान राजनैतिक दल इसी धारणा से संचालित हैं।
इस प्रकार राज्य हिन्दू समाज की सभी इकाइयों और धाराओं के द्वारा अभिषिक्त हो और उनका संरक्षण करे तथा उन्हें सनातन मर्यादा के अन्तर्गत स्वतंत्र और स्वायत्त रहने दे, यह मान्यता वर्तमान राजनैतिक दलों की नहीं है। इसके स्थान पर वे अपने मतवाद के अनुरूप कार्यरत इकाइयों का ही संरक्षण अपना स्वाभाविक कार्य मानते हैं। यह बात अलग है कि इस्लाम या ईसाइयत के नाम पर संगठित समुदायों को वे इस प्रकार रूपांतरित करने का साहस नहीं रखते अपितु उनके संगठनों और प्रतिनिधियों से समझौता ही करते हैं।
इसमें मुख्य बात यह है कि सर्वव्यापी परमात्मा का निषेध तो महापाप है ही, हजारों लाखों वर्षों तक भारतीय मनीषियों ने तप और साधना करते हुये जो शास्त्र रचे हैं, उन्हंे कालबाह्य मानकर उनकी ऐसी व्याख्या को प्रोत्साहन दिया जाता है, जो एंग्लो ईसाई या यूरो ईसाई आस्था के अनुरूप हों। इस प्रकार वह भारत के करोड़ो मनीषियों की प्रज्ञा और पुरूषार्थ का पूर्ण निरादर है और अपमान है। ऐसा करते हुये भी स्वयं को हिन्दू ही बताते रहने में रणनैतिक कौशल अवश्य है परंतु ज्ञान और कर्म के स्तर पर यह हिन्दुत्व का पूर्ण त्याग है।
यह अकारण नहीं है कि भारत के विश्वविद्यालयों के मानविकी विभागों द्वारा आधुनिक राज्य के संरक्षण में भारतीय राजनीतिशास्त्र की परंपरा में वर्तमान राज्य व्यवस्था का विवेचन और विश्लेशण करने वाली एक भी रचना सामने नहीं आई है। न्याय और समाजचिन्तन संबंधी भारतीय धारणायें भी सामने नहीं आई हैं। इसके स्थान पर भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद, भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद आदि शासकीय संस्थाओं द्वारा कम्युनिस्ट एवं यूरो-अमेरिकी समाजशास्त्रीय चिन्तन ही पुष्ट किया जाता रहा है। यह समाज को रूपान्तरित करने की योजना का ही अंग है।
ऐसे प्रतिभावान लोग, विशेषकर ऐसे युवक एवं युवतियाँ भारत में हैं भी या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता, जो हिन्दू अर्थात सनातन धर्म के शास्त्रों का अवगाहन कर उनकी प्रज्ञा के अनुरूप राज्य एवं समाज व्यवस्था तथा राजनीतिशास्त्रीय एवं समाजशास्त्रीय चिन्तन सामने ला सकें। यह रहस्य अभी भविष्य के गर्भे में है। -प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
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