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झूठ की औकात क्या, जानता हूँ,

झूठ की औकात क्या, जानता हूँ,

बोलबाला उसका यहाँ, मानता हूँ।
छुप रहा क्यों झूठ, सच के सामने?
बस इसी बात से, मैं रार ठानता हूँ।


है यही औकात झूठ की, जान लो,
रात का नीरव अन्धेरा, दीप थाम लो।
शान्त सरोवर मे, एक पत्थर फैंकिये,
हलचलें होंगी शान्त जल में, मान लो।


पल भर में झूठ, बेनक़ाब हो जायेगा,
इतिहास को कुरेदो, सच सामने आयेगा।
किसने मारा गाँधी को, किसकी सियासत,
अब तक पढ़ा इतिहास, झूठा हो जायेगा।

अ कीर्ति वर्धन
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