बड़ा ही चक्षुरुन्मीलक कबीर-वचन है--
डा• मेधाव्रत शर्मा, डी.लिट.(पूर्व यू.प्रोफेसर)
"कलि खोटा जग आँधरा शब्द न चीन्है कोय।
जासु कहौं हित आपुना, सो उठ वैरी होय ।।"
हिन्दीभाषा-संबन्धी कदाचार पर मेरे वक्तव्य से कुछेक लोगों को तितकी लगी है, ऐसा आभास हो रहा है। कुछ लोगों को 'लुंचन 'मालूम पड़ रहा है। बलिहारी है! कमजोर नस पर उँगली पड़े तो तिलमिलाहट होनी स्वाभाविक ही है। खरी बात को गले के नीचे उतारना मुश्किल होता ही है। यह कटु सत्य है और अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वाध्याय की लौ अधुना बुझ रही है। साहित्य को ज्यादातर लोगों ने महज शगल के रूप में अपना रखा है, साधना के रूप में नहीं। प्रामाणिक साहित्य-सृजन के लिए भाषा पर असाधारण अधिकार अनिवार्य है। बंगीय साहित्य के शीर्षस्थ कथाकार शरच्चन्द्र के विषय में "आवारा मसीहा "के लेखक विष्णु प्रभाकर का कथन है कि शरच्चन्द्र दस घंटे पढ़ते थे और सिर्फ दो घंटे लिखते थे। किसी ने कहा है और बहुत ठीक कि-'दस किलो पढ़िए और दस ग्राम लिखिए '।
स्वाध्याय तप है --"तपस्तद्धि "(तैत्तिरीयोपनिषद्)।'उपनिषद् ' स्त्रीलिंग है, हिन्दीवाले पुल्लिंग में प्रयोग करने लगे हैं-इसका क्या जवाब!ऐतरेयोपनिषद् के शान्तिपाठ में है--"अनेनाधीतेनाहोरात्रान्संदधामि "-यानी, अपने अध्ययन के द्वारा मैं रात और दिन को एक कर दूँ।
मैं ने अपने जीवन में अनुभव किया है कि किसी भी विषय की अपेक्षा किसी परिनिष्ठित भाषा पर अधिकार कृच्छ्रतर है। स्वाध्याय की लौ आखिरी साँस तक प्रज्वलित रहनी चाहिए।
किसी एक भाषा में प्रामाणिक साहित्य-सृजन में सामर्थ्यशाली होने के लिए बहुभाषाविद् होना जरूरी है। जहाँ तक हिन्दीभाषा का संबंध है, सशक्त प्रामाणिक साहित्य-सृजन में समर्थ और सफल वैसे ही लोग हुए हैं, जो बहुभाषाविद् रहे--बच्चन, अज्ञेय, दिनकर, रामविलास शर्मा, राहुल सांकृत्यायन आदि। लिस्ट लम्बी है। चाणक्य कौटिल्य ने बड़ी ही गुनने लायक बात कही है--
"गीर्वाणवाणीविशिष्टबुद्धिस्तथापि भाषान्तरलोलुपोऽहम्।
यथा सुराणामृते स्थितेऽपि स्वर्गाङ्गनानामधरासवे रुचि:।।"
बात सरस साहित्यिक लहजे में कही गई है। I speak out in the capacity of an authority on language and literature and that's all. It is my right and pious duty. इत्यलम्।
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