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विचारों की शृखलाएँ

विचारों की शृखलाएँ

डॉ रामकृष्ण मिश्र
कनमनाती है।
‌‌कौन‌ जाने कथाओं से
‌‌ कब धुआँ निकले।।

कर्म का संन्यास कैसे
सुखद हो सकता?
घृणा का आकाश कैसे
शुभद हो सकता?
धारणा - बारूद के कण
छिटकने लगते
गुन गुनाते स्वरों से
कैसे वयाँ निकले।।


शब्द भेदी हलचलों में
शून्यता पसरी।
गाँव की गलियाँ
पहनतीं हवाएँ शहरी।
घोसलों में मना है
संभ्रांत कलरव गान।
कौन जाने कब कहाँ
कोई सुआ निकले।।


‌ आस्था दीवार सी
लगती नहीं दिखती।
प्रेरणाएँ प्रलय मन
अभिषाप सी बनतीं।
शरद के‍ संदर्भ
बोझिल से अगर हों तो
वावली के बीच भी शायद कुआँ निकले।।
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