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संस्था बनाम संगठन, अत्ममुग्धता का शिकार:-डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"

संस्था बनाम संगठन, अत्ममुग्धता का शिकार:-डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"

मूल विषय पर विवेचना करने से पहले हमें सज्जन और दुर्जन का अर्थ समझते हुए आगे बढ़ना पड़ेगा। कारण कि सज्जन और दुर्जन शब्दों की चर्चा हमारे शाकद्वीपीय मग समाज में किसी भी महत्वपूर्ण बैठकों में अथवा बैठक के उपरांत हमेशा होती है ।
अल्पज्ञ,गरीब, निरक्षर अथवा कमजोर व्यक्तियों को हमेशा तिरस्कृत होना पड़ता है ।संस्थाओं में उसकी जरा सी भी अहमियत कभी भी नहीं दी जाती, मानो एसे लोग शाकद्वीपीय समाज का सदस्य हैं ही नहीं।
यही कारण है कि अनेकानेक शाकद्वीपीय संस्थाओं की गठन और आपसी प्रतिस्पर्धाओं के बावजूद अभी तक शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का कोई भी संगठन अस्तित्व में नहीं आ पाया है ।
मनुष्य का सबसे पहला कर्तव्य है स्वयं को समाज के योग्य व्यक्ति बनाना जिसमें, सज्जनता हो। सज्जन का मतलब है सभी को समान दृष्टि से देखना, सभी को सम्मानित करना। यही धर्म ओर कर्तव्य है सज्जनता का ।
सज्जन शब्द को तोड़ कर देखते हैं तो स्पष्ट है सत् + जन = सच्चा मनुष्य।
इन दो शब्दों से कहाँ परिभाषित होता है कि सज्जन अर्थात सच्चा आदमी सिर्फ- किसी कला में निपुण, विद्वान अथवा अकूत सम्पत्ति का स्वामी व्यक्ति ही हो सकता है, गरीब, निरक्षर अथवा कमजोर व्यक्ति सज्जन ( अच्छा आदमी ) नहीं हो सकता ?
सामाजिक दृष्टिकोण से अच्छे से अच्छा मनुष्य बनना ही, सज्जनता का पर्याय होना यथेष्ट है।
क्या यह ज्ञान सिर्फ पैसा कमाने के लिए- दिया और लिया जाना ही शेष रह जाता है ?------- यजमान/ ग्राहक/दाता चाहे जितना भी गंदा व्यभिचारी क्यों न हो पैसा लेने के लिए लाल कार्पेट बिछा देते हैं । अपनी पगड़ी भी उसके पैरों पर रख देते हैं । क्या ऐसे विद्वान, बुद्धिजीवी अथवा व्यवसायी, सज्जन कहलाने योग्य है ?
जो अपने ही समाज के निर्धन और अल्पज्ञ लोगों को हेयदृष्टि से देखते हैं, उन्हें अपमानित करते हैं,- वे विद्वान अथवा व्यवसायी कभी सज्जन हो सकते हैं क्या ?
समाज में बहुत सारे ऐसे लोग भी हैं जिनके पास अकूत संपत्ति है किन्तु अपनी जाति परिवार के गरीबों के लिए दया नहीं है, दर्द नहीं है, क्षमा नहीं है तो क्या वे सज्जन कहला सकते हैं ?
शाकद्वीपीय मग समाज का दुर्भाग्य ही है कि अभी तक संस्थागत शक्तियां ऐसे ही लोगों के हाथों में बन्धक है, जिसका वे कुछ लोग यथा सम्भव लाभ ले रहे हैं , समाज को बेवकूफ बनाकर । संगठनात्मक शक्ति से वेखबर मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय लोग अपनी रोजी-रोटी के फेर में लगा रहता है । यही कारण है कि संगठन नहीं बन पाया है ।
एक तरफ जहाँ तथाकथित विद्वान, धनवान, गुणवान लोगों के व्यवहार से व्यथित, दुसरी तरफ रोजी-रोटीकी चिंता मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय ब्राह्मणों के लिए संगठन एक अभिशाप बन कर रह गया है ।
अब प्रश्न है कि क्या कभी शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का संगठन कभी बन भी पाएगा ?
निसंकोच बनेगा ।
संगठन बनाने के लिए समय, साहस, संकल्प और समर्पण चाहिए जो कि मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय लोगों के पास है ।
उपरोक्त "4स" समय, साहस, संकल्प और समर्पण का दान तथाकथित जो कोई डॉक्टर है, इंजीनियर है, बड़े अधिकारी हैं, बड़े व्यवसाय हैं, बड़े कर्मकांडी है नहीं कर सकते - ऐसे महान आत्माओं के बिना ही संस्था और कार्य समितियों का निर्माण करना होगा। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें हम अपमानित करें! उनका अनादर करें! जिस तरह मुक्का मारने में पांचों उंगलियों की आवश्यकता होती है वैसे ही हमें सभी लोगों की जरुरत है ।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उचित कर्तव्य का निर्वाहण मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय लोग ही कर सकता है । समाजोपयोगी व्यक्ति जो बुरे और भले का अंतर कर सभी के साथ समन्वय बना कर चल सकता है तो सिर्फ मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय लोग ही । योग्य समाजसेवी बनने के लिए जीवनकला जानना ( किसी कला में निपुणता प्राप्त करना ) अनावश्यक नहीं है।
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