मेरी कविता बिन नियम चला करती है
पर्वत के झरने से झर झर झरा करती है।उछल कूद करती मचल मचल चलती,
राहगीरों की प्यास बुझाया करती है।
जाति धर्म और क्षेत्रवाद के कारा तोड,
गाँव नगर और शहरों से गुजरा करती है।
खेतों और खलिहानों को भी नीर बाँटती,
पशु पक्षियों मानव की प्रिय रहा करती है।
पर्वत से सागर तक बहने का संकल्प किया,
कष्टों को हरने का प्रयास किया करती है।
नहीं भेद करती कभी, अर्पण और तर्पण में,
अन्त समय में मोक्ष दायिनी बना करती है।
अ कीर्ति वर्द्धन
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