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पंडिताई दंगल में यजमानी पछाड़

पंडिताई दंगल में यजमानी पछाड़

ओसारे में चटाई पर चुकमुक बैठे, दोनों गाल पर हथेलियाँ चिपकाए, आगे-पीछे, दाएं-बाएं बीसियों पोथी-पतरा फैलाए नजर आए कुंढ़नकाका, जब मैं सुबह-सुबह उनके दालान में पहुँचा अपनी कौतूहलपूर्ण जिज्ञासा लेकर। वे अत्यन्त गम्भीर चिन्तन-मुद्रा में हैं—इस बात की गवाही इस बात से मिली कि कोई पाँच-सात मिनट मैं खड़ा रहा सामने और उनकी आँखें देख न पायी मुझे, जबकि काका पदचाप और परछायी भाँपने-नापने में माहिर हैं ।
कुछेक मिनट और इन्तजार करके मैं जरा खँखारा-ढकारा, तब कहीं उनकी तन्मयता टूटी। गर्दन उचकाकर मुझे देखे। ऐसे में डर भी लगा कि कहीं पौराणिक घटना की पुनरावृत्ति न हो जाए— ध्यानमग्न शिव के तीसरे नेत्र के खुलते ही कामदेव भस्म न हो जाएं फिर से। हालाँकि कलियुग में इन्हें फिर से भस्म हो जाने में ही भलाई है देश-दुनिया की।
खैर, कामदेव भला क्यों फिर से भस्म हों ! बिना कुछ बोले कुण्ढ़न काका ने हाथ से इशारा किया समीप बैठने का और फिर वगल में रखा छोटा सा आतशी शीशा उठा कर मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले—
“ पतरा का महीन अक्षर अब शीशवो लगा के ठीक से पढ़ा नहीं जाता बबुआ ! जरा देखो तो क्या-क्या लिखा है इनमें कल वाले परब के विषय में...। ये पतरा बनाने वाले भी पक्के व्यापारी हो गए हैं। चार गो घड़ी में चार तरह का टाइम बताने जैसा हो गया है। पंडितजी के चार वेटे चार रंग की बात लिखने लगे हैं—अपना रोजगार चलाने के लिए। मुझे समझ नहीं आता कि ज्योतिषीय गणित में ये दो और दो पांच या छः कैसे कब से होने लगा ! हिसाब हिसाब है, उत्तर एक जैसा न हुआ सब लिखलार्थी का, तो समझो कि बात में लोचा जरुर है। बाकी दिकदारी इ बात का है कि सब अपन-अपन हिसाब को दुरुस्त बतलाते हैं। ऐसे में बेचारा पढ़ताहर का करे...अपना माथा पीटे या कि लिखताहर के माथा फोड़े जाए? ”
कुंढ़नकाका की बातें सुनकर, समस्या जानकर मुझे सत्तर के दशक वाले भट्टजी की याद आ गयी। उन दिनों मैं डेहरी में रहता था। पड़ोस में एक पंडितजी थे—शहर के जाने-माने पंडितजी। हाथ की छड़ी और सिर की पगड़ी देर रात ही अलग होती थी। मौके पर काम सलटाने के लिए दस-बीस असिस्टेंट कम कमीशन ऐजेन्ट भी रखा करते थे, जो हमेशा चाटूकारिता में व्यस्त और मस्त रहते। कोई हजार-बारहसौ घर की जजमनिका थी। जाहिर है कि पूर्णिमा की सत्यनारायण कथा के लिए दस पर्सेन्ट तो जरुर होंगे उसमें। दशमी-एकादशी से ही वो यजमानों को बतलाना शुरु कर देते कि कल ही पुनमासी है। तीज, जिउतिया, करमा, देवोत्थान, दशहरा, दीवाली कोई भी व्रत-पर्व-त्योहार हो कम से कम दो दिन तो जरुर बतलाते। एक दिन एक यजमान से तो यहाँ तक कहते सुना कि शुद्ध पूर्णिमा में सत्यनारायण कथा सुनने पर सात जनम तक वैधव्य और दारिद्र होता है, तो उसी दिन दूसरे यजमान से यश्मिन कश्मिन दिने वाला श्लोक सुना गए पूरी व्याख्या के साथ कि सत्यनारायण पूजा तो सच्चे मन से करने की चीज है, जब मन करे करलो...दिन-तिथि का इन्तजार किए वगैर, जब मन हो एकादशी करलो...सब दिन भगवान का ही है...। कोई शंका हो तो निर्णयसिन्धु में देख लो...।
ये तो वही बात हुई न कि कोई डाक्टर कहे कि मेरी दवा पर भरोसा न हो तो फारमाकोपिया पढ़ लो या कि मेडिकल कॉलेज में दिखिला लेलो?
एक दिन मैंने उनसे पूछा—सुनते हैं पंडित जी कि आप तो बहुत विद्वान हैं, ज्योतिष-कर्मकाण्ड सब में धुरन्धर हैं, फिर ऐसे डंडीमारी क्यों करते हैं यजमानों के साथ?
मेरी बात पर पंडितजी जरा सा गुर्राये, फिर गर्दन हिलाकर, मुस्कुराते हुए बोले— “ बबुआ ! तुम नहीं समझोगे ये सब जजमानी दाँव-पेंच । अब तुम ही बतलाओ न—एक भी शादी-विवाह शुद्ध और सही लगन में होता है? सही ढंग से शास्त्रीय विधि-विधान का पालन होता है? नाचने-कूदने, गाने-बजाने से फुरसत मिलता है, तब कखनियों विआह हो जाता है। बाकी लगन देखने से लेकर लगनपत्री लिखने तक पंडितजी का मथधुनाई होता है—खूब बढ़िया ओला लगन देखियेगा पंडित जी...। तुम ही जरा सोचो—लगन में विआहे नहीं करना है, लग्न-मुहूर्त का महत्वे ही नहीं समझना-मानना है, तो ये मथधुनाई काहेका? नचनियाँ-बजनियाँ, टेन्स-क्रॉकरी को हजार-लाख देने में हाथ नहीं कांपता और पंडितजी को ग्यारहसौ सुमंगली देने में आँख तरेरने लगते हैं लोग। धोती-गमछा से लेकर शुद्ध घी तक स्पेशलपूजाब्राण्ड आता है—हाथी के दांत जैसा—खाने वाला और दिखाने वाला और। डॉक्टर-वकील का फी पहले जमा करो, पंडीजीका दछिना छःमहीना बादो मिलेगा न...। बाकी एक बात और है—ये पंडीजी सब भी कुकुर के पूँछ ऐसा ही है—कभी सुधरने का नामे नहीं लेता है...अपना अपने का ही टांग खीचने में बेदम रहता है...।”
भट्टजी की बातों में कुछ तो दम जरुर है। सोचने वाली बात है। मैं भी सोचने को विवश हो गया।
आज इसी सोच और कुढ़न में डूबे हमारे कुंढ़नकाका भी नजर आए। मेरे जैसा अदना आदमी इस सनातन समस्या का क्या समाधान सुझाए—मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।
धर्मप्राण आर्यावर्त में आए दिन पर्व, त्योहार, व्रत, उपवास आदि पर पंडिताई दंगल बिना टिकट के ही देखने को मिल जाता है दर्शकों को। खासकर जब से ये सोशलमिडिया वाला प्लेटफॉर्म मिल गया है, अन लीमिटेड नेट की कृपा से और ‘वाट्सऐप यूनिवर्सीटी’ खुल गया है, तब से मामला और गहरा गया है। यहाँ प्रोफेसर और डीन रैंक से नीचे कोई है ही नहीं। किरानियों चपरासी नहीं है यहाँ और विद्यार्थी रहे कोई तब न समझे। यहाँ सब समझाने वाले ही हैं। कुछ थोड़े से समझदार रैंक के हैं भी तो उनका कहना है कि बात तो राऊर ठीक बा, बाकी खूँटवा गड़ाई एहिजे...।
मुझे चुप्पी साधे देख कुंढ़नकाका का कुंढ़न और बढ़ गया। जोर से खँखार कर बोले— “ देख न बचवा, कऊन पतरावा में का लिखल हे...। ऐतना दिन से पंडिताई दंगल चल रहल हेऽ आउ पंडितन के पटका-पटकी में बेचारा सुधुआ जजमान पछड़ाइत हेऽ...।”
यजमान के लिए सुधुआ विशेषण प्रयोग पर मुझे आपत्ति हुई। अतः बोला— काका आज के जमाने में सुधुआ और मूरख कोई नहीं रह गया है। यजमान सब भी बहुत काबिल हो गया है। धरम-करम के नाम पर केतना दिन बेवकूफ बनाइयेगा अब? भलाई इसी में है कि दिमाग दुरुस्त करके, एक मत, एक जुट होइए। नहीं तो गरदनियाँ पासपोर्ट थमा देगा यजमान। कर्मकाण्ड का कबाड़ा बना के रखे हैं । करिआ अछर भैंस बराबर...उपर से रजाई छाप कुरता और साड़ी मार्का धोती झार के, रंग-बिरंग के लिलार पोत-पात के, एक बोझा माला-डोरा गर्दन में लाद के कर्मकाण्डाचार्य बनन फिरैत हेऽ।
कुंढ़ने से काम नहीं चलेगा कुँढ़नकाका। समय की माँग है चेतने का। जागने का और खुद को जगाने का। पंडिताई करना है, आचार्य-कर्मकाण्डी बनना है, तो विधिवत इसकी शिक्षा लेनी होगी। ग्रन्थों का अध्ययन करना होगा। और कोरे अध्ययन से भी काम नहीं चलेगा, मनन-चिन्तन भी करना होगा।
कर्मकाण्ड ठगविद्या नहीं है। दिखावा और आडम्बर भी नहीं है। कर्मकाण्ड हमारे सनातन की आत्मा है। आम आदमी का उद्धार कर्मकाण्ड से ही होता है, क्योंकि सभी ज्ञानी, ध्यानी और सांख्ययोगी नहीं हो सकते। आत्मा अमर है इसका ये भी अर्थ नहीं कि इसे रसातल में ठेल दें।
इसी ठगी, आडम्बर और जाल-फरेब का दुष्परिणाम हम भोग रहे हैं, फिर भी चेत नहीं रहे हैं। सत-असत की विवेकवती बुद्धि को पंडा कहते हैं और ये हो जिसके पास वही पूर्ण रूपेण पंडित है, बाकी तो पंडितजी गोड़ लागी...जय जजमान वालों की क्या गिनती !
दुःखद बात यही है काका कि धर्म हो या राजनीति, शिक्षा हो या समाजसुधार, सर्वत्र अयोग्य लोगों का वर्चश्व है लम्बे समय से। और योग्य लोगों की उदासीनता इसके जड़ में है, जो घुन की तरह जर्जर किये जा रहा है।
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