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विश्व क्रंदन

विश्व क्रंदन

कहाॅं जा रही यह दुनिया ,
जग में क्या ये हो रहा है ।
ईर्ष्या को भर कर मन में ,
मानव प्यार खो रहा है ।
मानव के पथ में ये काॅंटे ,
आज मानव ये बो रहा है ।
इंसानों की ये इंसानियत ,
जाने ये कहाॅं सो रहा है ।
मन में निज छल लेकर ,
इंसानियत ये ढो रहा है ।
मार काट कर आपस में ,
खूब धन संजो रहा है ।
हर वाक्यों के ये अंत में ,
ये किंतु परंतु तो रहा है ।
देने का कहीं नाम नहीं
कर फैलाकर दो रहा है ।
देने की जब बारी आई ,
मुखसे केवल नो रहा है ।
जन करें लेने का काम ,
कहीं से नहीं लो रहा है ।
अपराधी करे ये गलती ,
कहता वह वो रहा है ।
प्रशंसा में ये अपनी तो ,
होता सदा शो रहा है ।
दुनिया का देख क्रंदन ,
मेरा ये हृदय रो रहा है ।


पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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