सर्वपितृ अमावस्या का महत्व !
प्रति वर्ष श्राद्ध विधि करना यह हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण आचार धर्म है एवं उसका महत्व अनन्यसाधारण है। पुराण काल से चलती आ रही इस विधि का महत्व हमारे ऋषि मुनियों ने अनेक धर्म ग्रंथो में लिखकर रखा है। इस लेख में सर्वपितृ अमावस्या का महत्व हम जान कर लेंगे। दिनांक के अनुसार इस वर्ष सर्वपितृ अमावस्या 14 अक्टूबर को है।
पितृ पक्ष की अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या कहा जाता है। इस तिथि पर कुल के समस्त पितरों के लिए यह श्राद्ध किया जाता है। वर्ष भर अथवा पितृ पक्ष की अन्य तिथियों पर श्राद्ध करना संभव न होने पर सबके लिए यह श्राद्ध करना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि पितृपक्ष की यह अंतिम तिथि है। शास्त्र में बताया है कि श्राद्ध के लिए अमावस्या की तिथि अधिक योग्य तिथि है एवं पितृपक्ष की अमावस्या यह सर्वाधिक योग्य तिथि है।
सर्वपितृ अमावस्या को घर में कम से कम एक ब्राह्मण को भोजन का निमंत्रण दिया जाता है। इस दिन ठाकुर, बुनकर, कुनबी आदि जाति के लोग पितरों के नाम से चावल अथवा आटे का पिंड बनाते हैं एवं अपनी ही जाति के कुछ लोगों को भोजन देते हैं। इस दिन ब्राह्मणों को अन्न सामग्री देने की परंपरा भी प्रचलित है।
शास्त्रों में जिन कृतियों के लिए जो समय निर्धारित कर दिया गया है, उसी कालावधि में वह कृति करना आवश्यक एवं महत्वपूर्ण होता है। इसलिए पितृपक्ष में महालय श्राद्ध करना चाहिए । पितृ पक्ष में महालय श्राद्ध करने के विषय में अनेक बातें बताई गई हैं। सांप्रत मृत व्यक्ति की मृत्यु की तिथि को ही पितृपक्ष में एक दिन महालय श्राद्ध किया जाता है। जन्म अथवा मृत्यु के कारण यदि सूतक लगता हो अथवा अन्य किसी अपरिहार्य कारण से उस तिथि को महालय श्राद्ध करना संभव न हो तो सर्वपितृ अमावस्या को करना चाहिए अन्यथा सुविधा के अनुसार कृष्ण पक्ष की अष्टमी, द्वादशी, अमावस्या एवं व्यतिपात योग, इस दिन भी महालय श्राद्ध किया जा सकता है।
यदि सूतक में पितृ पक्ष आता है तो यदि मृत व्यक्ति की तिथि सूतक समाप्त होने के बाद आई हो तो पितृपक्ष की विधि की जा सकती है। यदि मृत व्यक्ति की तिथि सूतक वाले दिनों में ही हो तो सर्वपित्रि अमावस्या को विधि की जा सकती है। इसमें केवल मृत व्यक्ति यदि अपने माता-पिता इनमें से कोई है तो उनके श्राद्ध इसी वर्ष नहीं कर सकते। अगले वर्ष कर सकते हैं।
कलियुग में कम अधिक मात्रा में प्रत्येक को ही आध्यात्मिक कष्ट होने के कारण श्राद्ध करने के साथ ही "श्री गुरुदेव दत्त" यह नाम जप भी अधिक से अधिक करना चाहिए।
संदर्भ - सनातन संस्था का ग्रंथ "श्राद्ध"
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