Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

सुनने से कोई फायदा नहीं होगा, पूरी तरह सही नहीं

सुनने से कोई फायदा नहीं होगा, पूरी तरह सही नहीं

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
एक एक्टिव लिसनिंग होती है और दूसरी होती है पैसिव लिसनिंग। एक्टिव लिसनिंग (Active listning) में आप ध्यान से सुन रहे होते हैं, जो सुना उसपर सवाल करते हैं, सहमति-असहमति जैसे विचार भी पैदा होते हैं।

ऐसा पैसिव लिसनिंग (Passive listning) में नहीं होता।
ये वैसा है जैसा खाना खाते वक्त मेरे घर में टीवी चल रहा हो और हम अपनी माँ से बात भी कर रहे हों।
या तो मेरा ध्यान टीवी पर होगा और हम माँ की बात ध्यान से नहीं सुन रहे होंगे।
या ऐसा भी हो सकता है कि मेरा ध्यान बातचीत पर हो और टीवी में क्या आया ये नजर तो आये, मगर उसपर हम कोई ध्यान न दे पायें।
अगर आपके घर में सिर्फ दुर्गा सप्तशती बज रही हो और आप साथ साथ और दूसरे काम भी कर रहे हों, तो कुछ ऐसा ही होगा। ज्यादा संभावना इसी बात की है कि संस्कृत न आने के कारण आपको उसमें कुछ भी समझ नहीं आ रहा होगा।
आप पैसिव लिसनिंग जैसा ही कुछ कर रहे होंगे।
बेहतर है कि जितनी देर आप इसे ऑडियो में भी बजाएं, उतनी देर साथ साथ इसे किताब से पढ़ते रहें ताकि आपका ध्यान वहीँ हो।
कहीं और ध्यान जाने पर आपको पता चल जाए कि आपका ध्यान, आपकी एकाग्रता कितनी जल्दी टूटती है।
जहाँ तक दुर्गा सप्तशती का सवाल है, ये मेधा नाम के ऋषि सुरथ और समाधी को सुना ही रहे होते हैं।

ये कहना कि सुनने से कोई फायदा नहीं होगा, पूरी तरह सही नहीं।
चूँकि मेधा ऋषि सुना ही रहे होते हैं, इसलिए सुनने का भी असर तो होगा।
बस ये ध्यान रखिये कि जब मेधा ऋषि के कद के लोग सामने बैठे सुना रहे हों तो सुनने वालों के पास पैसिव लिसनिंग में जाने का विकल्प ही नहीं होता।
अगर आप सुनने जा रहे हैं, तो आपको अपनी एकाग्रता का ध्यान खुद रखना होगा।
साथ साथ पढ़ते रहना एक अच्छा विकल्प हो सकता है।
किसी भी स्थिति में कुछ भी न करने से कुछ करना बेहतर होता है। इसलिए अगर पाठ नहीं कर पा रहे सिर्फ सुन रहे हैं तो कोई फायदा नहीं हो रहा ऐसा नहीं कहा जा सकता।


इससे ही मिलता जुलता सा एक सवाल आता है कि अगर कुछ भी समझ न आये तो क्या?
संस्कृत नहीं आती इस वजह से बहुत थोड़े से हिस्से समझ आएं ऐसा हो सकता है।
पाठ ध्यान से करने पर नजर आ जाएगा कि इस ग्रन्थ में लिखा है कि भगवान विष्णु को ये दो तिहाई समझ में आता है,
ब्रह्मा इसके आधे की समझ रखते हैं और वेदव्यास इसे करीब एक चौथाई समझते हैं।


इसे समझने का दावा कुछ अँगूठा चूसने वाले बच्चे कर सकते हैं।
कभी कभी धूप में बाल पका बैठे कुछ लोग भी ऐसे दावे करते मिल जायेंगे।
उनकी बातों पर ध्यान देने कि जरूरत है या नहीं ये समझने के लिए आपका स्वविवेक ही काफी है।


ये याद रखिये कि पेरासिटामोल जैसी दवाई को चूरन समझ कर फांक लेने से उसका असर चूरन वाला नहीं होता।
वो दर्दनाशक, शरीर का तापमान कम करने जैसे असर ही दिखायेगा।


बच्चे अगर तेंदुलकर, धोनी बनने के मकसद से नहीं, सिर्फ मनोरंजन के उद्देश्य से खेल रह हों तो एक्सरसाइज, कसरत, समाज में घुलने मिलने, टीम बनाने जैसी चीजें तो सीखेंगे ही।


बरसों से प्रयोग की जा रही चीज़ों में कोई साइड इफ़ेक्ट जैसा नुकसान नहीं होता ये अनुभव से देखा जा सकता है।
कुछ न करने के बदले सुनने से शुरुआत करने का एक फायदा ये भी हो सकता है कि आपके घर में इसे बजते सुनने पर बच्चे पूछें कि ये है क्या और फिर उन्हें सिखाने के लिए आपको खुद सीखना पड़े।


संस्कृति और धर्म का ज्ञान एक पीढ़ी आगे बढ़ सके ये हर लिहाज से फायदेमंद ही है।
आपको नुकसान नजर आते हों तो बताइये।
जिसके बारे में कुछ भी पता ही न हो उसके बारे में सवाल भी कितने कर पायेंगे?
#नवरात्रि


हे क... क... क... क... किरण! चलिए फिल्म तो आपने आसानी से पहचान ही ली होगी कि ये “डर” नाम की फिल्म है जो 1993 में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में से एक थी।


फिल्म की कहानी तो खैर सबको मालूम होगी। आम भारतीय मनिसिकता के विरुद्ध ये फिल्म “प्यार में सब जायज है” को सही साबित करने की कोशिश करती है। इसका खलनायक राहुल अपने ही कॉलेज में पढ़ने वाली किरण से एकतरफा मुहब्बत करता है। वो जैसे तैसे हर वक्त किरण के करीब पहुँचने की कोशिश करता रहता है। किरण उसे घास भी नहीं डालती और एक नौसेना अधिकारी सुनील से शादी कर लेती है। राहुल फिर भी पीछा नहीं छोड़ता और सुनील की हत्या करके जबरन किरण को पाने की कोशिश करता है। अंततः नायक खलनायक की आमने-सामने की लड़ाई होती है और खलनायक मारा जाता है। नायक-नायिका हंसी-ख़ुशी घर लौट आते हैं।


थोड़ा गौर करेंगे तो पायेंगे कि इस फिल्म से पहले के दौर तक एकतरफा प्रेम प्रसंग में लड़की के चेहरे पर तेज़ाब फेंक देने जैसे वाकये आम नहीं थे। जबरन किसी लड़की के पीछे पड़े रहना बिलकुल निकृष्ट कोटि की हरकत मानी जाती थी। जो लोग 90 के दशक में युवा होंगे वो बता देंगे कि ऐसी हरकतें करने पर मित्र इत्यादि भी साथ नहीं देते थे। व्यक्ति समाज से बहिष्कृत हो जाता था। जैसे कई अपराधी हत्या-लूट आदि की योजना किसी फिल्म से प्रेरित होकर बनाते हैं वैसे ही इस दौर में “डर” जैसी फिल्मों का भी असर हुआ। अंग्रेजी की “केप फियर” और “स्लीपिंग विथ द एनिमी” जैसी फिल्मों से प्रेरित इन फिल्मों का असर समाज अब भी झेल रहा है।


अब जैसा कि हमारी आदतों से वाकिफ अधिकांश लोग जानते ही हैं हम “डर” जैसी फिल्मों के “एंटी-हीरो” को महिमंडित करने वाली फिल्म की कहानी तो सुना नहीं रहे होंगे। हमारी रूचि बस ये याद दिला देने में थी, कि ऐसे खलनायकों को दुराचारी और निकृष्ट ही बताये जाने की परंपरा कहाँ रही है। इस बार धोखे से हमने “ललिता सहस्त्रनाम” के कुछ हिस्से सुना डाले हैं। जैसे उत्तरी भारत में “दुर्गा सप्तशती” के पाठ की परंपरा है, वैसे ही भारत के कई हिस्सों में “ललिता सहस्त्रनाम” का पाठ किया जाता है। जैसे “दुर्गा सप्तशती” मार्कंडेय पुराण का हिस्सा है, वैसे ही “ललिता सहस्त्रनाम” ब्रह्माण्ड पुराण का हिस्सा है। भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार इसे अगस्त्यमुनि को सुनाते हैं और माना जाता है कि तमिलनाडु के थिरुमीयाचूर मंदिर वो जगह है जहाँ इसे सुनाया गया था।


ललिता सहस्त्रनाम का राक्षस भण्ड प्रेम के विकृत रूप का ही प्रतीक है। मदन-दहन यानी जब शिव ने कामदेव को भस्म किया तो उस राख से चित्रकर्म नाम के एक कलाकार ने मानवीय सी प्रतिमा बनाई। शिव पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं होने से निराश ब्रह्मा ने उस समय “भण्ड, भण्ड” का उच्चारण किया जिससे उस जीवित हो उठी राक्षसमूर्ती का नाम भण्ड पड़ा। चित्रकर्म ने ही उस राक्षस को शिव के क्रोध से जन्मने के कारण शिव की उपासना करने कहा। उसे बाली की तरह अपने विपक्षी की आधी शक्ति सोख लेने का वर मिला था। शिव के क्रोध से उपजने के कारण उसकी शक्तियां तो विध्वंसक थी ही, वरदान मिलने के बाद वो देवताओं को ही खदेड़कर खुद सब हथिया बैठा।


जहाँ से भण्ड शासन करता था, उसका नाम शोणितपुर था। शोणित का मतलब रक्त, या गहरा लाल रंग होता है। वासना को महिमंडित करती दूसरी फ़िल्में जैसे रानी पद्मावती पर बनायी गयी अभी हाल की फिल्म देखेंगे, तो उसमें भी आपको चटख लाल रंग का भरपूर इस्तेमाल दिख जायेगा। वासना का भाव दर्शाने के लिए इस रंग का खूब इस्तेमाल होता है। ललिता देवी से विवाह के लिए भगवान शिव ने कामेश्वर रूप धारण किया था। यहाँ विवाह के लिए ललिता देवी की शर्त थी कि वो जो भी कहें या करें उसके लिए उन्हें स्वतंत्रता होगी, किसी किस्म की रोकटोक नहीं होगी। स्त्री पर जबरन अधिकार जमाने को आतुर “डर”, या उसी दौर की “अग्निसाक्षी” जैसी फिल्मों की तुलना में ये ठीक उल्टा है।


ललिता देवी के भण्ड से युद्ध का समय देखेंगे तो उनके और अन्य शक्तियों के रथ भी “यंत्रों” और “मंडलों” के स्वरुप में हैं। ललिता देवी का रथ चक्रराज नौ भागों में बंटा था और उसके अलग अलग भागों में अलग-अलग शक्तियां होती हैं। देवी की दो सेनानायिका मंत्रिणी और दंडनायिका (दंडनाथ) हैं और इनके रथों का विवरण भी कुछ ऐसा ही है। हिन्दुओं के लिए “काम” के अर्थ में पाने योग्य सभी वस्तुएं होती हैं, इसलिए दंडनाथ के हथियार हल और मुसल जैसे कृषि के औजार हैं। वहीँ दूसरी सेनानायिका मंत्रिणी के रथ के दूसरे भाग में प्रेम के भिन्न स्वरुप, रति, प्रीती और मनोज होते हैं।


ललिता सहस्त्रनाम कितना महत्वपूर्ण है ये अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि श्री औरोबिन्दो की “सावित्री” के पहले भाग का पूरा एक अध्याय (तीसरा) देवी के ललिता सहस्त्रनाम से काफी मिलता जुलता है। दूसरे तरीके से देखें तो किसी भी प्रयास में कैसी बाधाएं आती हैं, वो भी नजर आता है। जैसे असुरों में से एक देवी की सेना को आलस्य के वशीभूत कर रहा होता है। एक दूसरा सबकुछ अंधकार से ढक देता है। किसी भी बड़े काम को करते समय चलो थोड़ी देर और सो लें का आलस्य भी होता है। फिर आधा काम होते होते लगता है कि अब और हो ही नहीं सकता, कोई रास्ता ना सूझे ऐसा भी होता है।


बाकी तकनीक के मामले में कोई चीज कैसे बनी है, या काम कर रही है, ये समझने के लिए तोड़-फोड़ यानि “रिवर्स इंजीनियरिंग” इस्तेमाल करते हैं। फिल्मों और दूसरे माध्यमों से अगर कोई “नेगेटिव” चीज़ें सिखाई जा रही हों, तो उसे दोबारा उल्टा करके, दो नेगेटिव से एक पॉजिटिव बनाना चाहिए। इतनी “कलात्मक अभिव्यक्ति” की स्वतंत्रता तो सबको है ही!


मार्कंडेय पुराण, जिसके एक हिस्से को “दुर्गा सप्तशती” कहते हैं, वो ऋषि मार्कंडेय और जैमिनी के बीच का संवाद है। ऋषि मृकण्ड के पुत्र का अल्पायु होना तय था। तो पति-पत्नी ने बालक मार्कंडेय को उसका भविष्य बताया और कहा कि काल को रोकने का सामर्थ्य सिर्फ भगवान शिव में है, तो तुम उन्हीं की उपासना करो। संभवतः इससे तुम्हारी आयु कुछ बढ़ जाए, और जो न भी बढ़ी तो जो पुण्य होंगे उनका लाभ तो मिलेगा ही। तो ऋषि मार्कंडेय बचपन में ही ऋग्वेद के महामृत्युंजय मन्त्र (7.59.12) जो कि यजुर्वेद और अथर्ववेद में भी आता है, उसका जाप करने लगे।


ऐसा माना जाता है कि वाराणसी में गंगा-गोमती संगम पर स्थित कैथी में आज जिसे मार्कण्डेय महादेव मंदिर कहा जाता है, वहीँ मार्कंडेय ऋषि उपासना करते थे। जब उनकी बारह वर्ष की आयु हुई तो यमदूत उन्हें शिवमंदिर से ले नहीं जा पाए और अंततः काल को स्वयं ही आना पड़ा। ऋषि मार्कंडेय शिवलिंग से लिपटे थे तो उनके पाश में भगवान शिव ही आ गए! महामृत्युंजय मन्त्र शिव के रूद्र (सबसे उग्र रूपों में से एक) रूप का होता है। यमपाश में बंधे भगवान शिव जब प्रकट हुए तो काल को ऋषि मार्कंडेय को छोड़ना पड़ा। भगवान शिव को महाकाल या कालान्तक नाम से भी जानते हैं।


जब “काली” शब्द को देखेंगे तो स्पष्ट रूप से ये “काल” शब्द से ही आता है। थोड़ा और गौर से देखेंगे तो ध्यान जाएगा कि सृष्टि के विनाश को उद्दत देवी जब काली के रूप में होती हैं तो उन्हें रोकने का काम फिर से भगवान शिव के जिम्मे ही आता है। वो रोकने-टोकने की कोई कोशिश नहीं करते। संभवतः ललिता देवी के कामेश्वरी रूप से विवाह के लिए जो कामेश्वर रूप का वर था वो आड़े आ जाता है। विवाह इसी आधार पर हुआ था कि वो स्वतंत्र होंगी और उनके कुछ करने-बोलने पर कोई रोक-टोक नहीं होगी। भगवान शिव भी रोकने के बदले रास्ते में लेट जाते हैं। उनपर पैर पड़ते ही देवी जब देखती हैं कि पैर कहाँ रख दिया, तब वो स्तंभित होती हैं!


जहाँ स्वयं भगवान शिव की ये स्थिति होती हो, वहां मनुष्यों की कैसी होती होगी? देवी के गले में जो आठ नरमुंड होते हैं वो बुद्धि को जकड़ने वाले आठ पाशों को दर्शाते हैं। ये काम (वासना), क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, लज्जा, भय और घृणा के पाश हैं। एक-एक करके इन पाशों को काटकर देवी अपने भक्तों को मुक्त करती हैं। रक्तबीज वध के प्रसंग में देवी का ऐसा ही रूप प्रदर्शित होता है। जैसे रक्तबीज के खून की बूँद जमीन पर गिरते ही बीज की तरह, उतना ही शक्तिशाली, दूसरा राक्षस उत्पन्न करती थी, इक्छाओं के साथ भी वैसा ही माना जाता है। एक इच्छा, बीज की तरह उतनी ही बलवती कोई दूसरी इच्छा को जन्म देती जाती है। देवी इन सभी को चट कर जाती है।


त्वयेतद्धार्यते विश्वं त्वयेतत् सृज्यते जगत।
त्वयेतत् पाल्यते देवी त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ॥


सृजन और पालन का ही नहीं, अंत का जिम्मा भी उनका ही है, इसलिए वो देवी के सबसे उग्र रूपों में से एक है। महानिर्वाण तंत्र में भगवान शिव कहते हैं कि सबकुछ लीलने वाले काल का तुम भक्षण करती हो इसलिए तुम्हारा नाम महाकाली है, और सब तुमसे शुरू भी होता है इसलिए तुम्हारा नाम आद्या है। अब जहाँ से हम लोगों ने शुरू किया था, उन्हीं मार्कंडेय ऋषि के पास वापस चलें तो वो भृगु वंश के ऋषि थे। पूरी महाभारत भृगुवंशी ऋषियों की ही कहानियां कहती रहती है इसलिए वो महाभारत में भी आते हैं। यानी काली भी महाभारत में आती हैं। अश्वत्थामा शिवभक्त था और जब वो पांडवों के पुत्रों की हत्या करता है, तब देवी की चर्चा आती है।


महाभारत में देवी के हाथ में पाश होता है, जिसमें वो जीवों को बांध लिए जाती हैं। आमतौर पर मूर्तियों में जब देवी को दर्शाते हैं तो उनके हाथ में कमल होता है पाश नहीं। कुछ लोग शिव में से “इ” की मात्रा हटाते हुए बताते हैं कि ऐसा करते ही शिव, शव हो जाते हैं। यहाँ “शव” का अर्थ द्रव्य हो जाता है और “इ” का अर्थ उर्जा है। बिना उर्जा के शिव भी कुछ नहीं कर सकते, यहाँ ऐसा भाव है। वैसे भौतिकी (फिजिक्स) की परिभाषा कहती है कि ये द्रव्य, उर्जा और उससे सम्बंधित नियमों का विज्ञान है। शिव-शक्ति की धर्मग्रंथों में चर्चा का कोई वैज्ञानिक आधार है या नहीं है, इस बारे में हम कुछ नहीं कहते।


बाकी देवी काली, सनातनी देवी-देवताओं में सभवतः एकमात्र पूज्य देवी हैं जिनका जन्म सीधे क्रोध से होता है। हर व्यक्ति को उनके रूप सहज लगें ऐसा आवश्यक नहीं और कोई जबरदस्ती भी नहीं है। वैष्णव जैसे (शाकाहारी प्रकार की) मनोवृति के हो तो दूर से हाथ जोड़कर भी आगे बढ़ सकते हैं।✍🏻 आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ