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तुम नदी हो , मैं समन्दर हूं ।

तुम नदी हो , मैं समन्दर हूं ।

मैं अपनी मर्यादा के अन्दर हूं ।।
तुम निर्बाध गति से बहती हो।
किनारा तोड़ते रहती हो ।।
मैं शांत होकर रहता हूं ।
कभी किनारा नहीं लांघता हूं ।।
तुम आकर मुझमें समाती हो ।
मुझमें विलीन हो जाती हो ।।
निरंतर बहना है काम तेरा ।
तुझे थाम लेना है काम मेरा ।।
तुम अपने प्रवाह से जी रही हो ।
मैं अपने स्वभाव से जी रहा हूं ।।
मैं तुमको समेटे रखुंगा ।
कभी दूर नहीं कर पाउंगा ।।
तेरे रूप रंग के बूंद बूंद को ।
अपने अंतर्मन में सजाऊंगा ।।
एक छोटी सी नौका से ,
तुझे पार करना आसान है ।
पर बिना जहाज के मुझमें ,
उतरना मौत के समान है ।।
मुझसे मिलती और जुड़ी रहो ,
मुझे निराश मत होने दो ।
मुझे किनारा तोड़ना नहीं भाता।
मुझे अपने मर्यादा में रहने दो ।।
क्योंकि मैंने मर्यादा तोड़ा तो ,
फिर कुछ भी नहीं बच पाएगा ।।
फिर न तुम रहोगी , न यह धरा रहेगी ,
तब सम्पूर्ण विनाश हो जाएगा ।। जय प्रकाश कुंअर
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