हम कितने सहिष्णु हैं
कि सह जाते हैं
अपने धर्म के अपमान को
बेच देते हैं अपने स्वाभिमान को
गिरवी रख देते हैं
अपने आत्म सम्मान को
फिर भी नही मन मानता
तो देकर तिलांजलि
अपने आप को
गाँव, घर ,परिवार, समाज को
अपना बजूद ही बेंच देता हूँ सरेआम
चापलूस और चाटुकारों के बाजार में
अपने अनैतिक कार्यों को
नैतिक बताने के मोह में अक्सर
मैं कवि बनना चाहता हूँ
तो बेंचता हूँ कविता में
दूसरे के भावों को अपना बता कर
जब भी मन करता है
कि करू समाज सेवा
जनता के बीच जनता के हक को
बेंच देता हूँ समाज सेवा के नाम पर
एक सफल मनुष्य होने के लिए
क्या नही करता सकारात्मक कार्य
अपने धर्मग्रन्थों का करता हूँ अपमान
युगानुकुल क्रांति की मांग बता कर
गाय के दूध को भैंस की दूध से
ज्यादा गुणकारी बताकर
गाय और भैंस में समन्वय बता कर
देता हूँ परिचय अपने उदारवादी होने का
यही तो मेरा असली परिचय है
आज के प्रगतिशील मनुष्य होने काअरविन्द कुमार पाठक "निष्काम'"
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