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धर्म के सच्चे जिज्ञासु हिंदुओं को परिश्रम और तप करके संस्कृत अवश्य सीखनी चाहिए

धर्म के सच्चे जिज्ञासु हिंदुओं को परिश्रम और तप करके संस्कृत अवश्य सीखनी चाहिए

मेरा निवेदन है प्रत्येक सच्चे जिज्ञासु हिंदू से जो धर्म की जिज्ञासा रखते हैं और धर्म में निष्ठा रखते हैं कि उन्हें संस्कृत अवश्य सीखनी चाहिए।
अगर किसी कारण उन्हें इसकी सामर्थ्य नहीं है तो संस्कृत के विद्वान को ही अपना गुरु बनाना चाहिए ।।
इसका कारण यह है कि हमारे सभी मूल ग्रंथ संस्कृत में हैं।
वेदों की संस्कृत अलग है।।
इस बात को तूल देकर ज्यादा प्रचार किया गया है। उस वैदिक ज्ञान के लिए भी संस्कृत ज्ञान आवश्यक है।
परंतु मूल बात यह है कि उपनिषद, श्रीमद् भागवत,भगवद्गीता, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, धर्मशास्त्र (समस्त धर्मशास्त्र )
:-
उनके ज्ञान के लिए तो संस्कृत आवश्यक है।
इसका एक और अत्यंत विशिष्ट और आधारभूत महत्व है। इसे भी जाने।
संसार में सबसे अधिक अपने धर्म को मूल रूप में पढ़ने वाले हिंदू हैं क्योंकि हिंदुओं के धर्म और आध्यात्मिक तथा व्यवहार शास्त्र के भी मूल ग्रंथ संस्कृत में हैं।
पादरियों ने और उनके भारतीय चेलों ने विशेष कर युरण्डपंथी राजनेताओं और प्रशासकों ने संस्कृत के ही नाश की बहुविध चेष्टाएँ कीं ।
फिर भी इस समय भारत में कम से कम 50 से 60 करोड लोग काम चलाऊ संस्कृत जानते हैं यानी धीरे-धीरे बोलने पर संस्कृत को समझ सकते हैं ।यह बात बहुत विशिष्ट है ।
अत्यंत विरल है दुर्लभ है ।
इसे अच्छी तरह जानिए।
क्योंकि संसार के जो दो अन्य मजहब और रिलिजन है (धर्म तो वे नहीं है परंतु मजहब या रिलिजन के रूप में बहुत फैले हुए हैं )
उनमें से एक है ईसाइयत या churchianity और दूसरा है इस्लाम मजहब या मोहम्मद साहब के द्वारा लाया गया अल्लाह का पंथ।
ईसाइयत यीशु का साक्षात वचन नहीं है ।
वह यीशु के बारे में चार गैर यहूदी लोगों के द्वारा मुख्यतः रोमन लोगों के द्वारा यानी जिन लोगों ने दावा किया कि उनके राजा ने यीशु को फांसी दी ऐसे लोगों के द्वारा संग्रहित कुछ वचन हैं, जिसे वे गुड न्यूज़ कहते हैं।
परंतु उनका भी दवा यह है कि यीशु ने हिब्रू भाषा में कहा था और स्वयं उन्होंने सबसे पहले इसे हिब्रू में लिखा उसके बाद लैटिन में लिखा और 16 वीं शताब्दी ईस्वी में पहली बार इसको अंग्रेजी में ट्रांसलेट किया गया और फ्रेंच, जर्मन आदि में भी ट्रांसलेट किया गया।
इस प्रकार संसार भर में मुश्किल से 5000 स्वयं को पादरी कहने वाले लोग ही ऐसे हैं जिन्हें हिब्रू आती है।
बाकी किसी को अपने धर्म ग्रंथ की मूल भाषा आती ही नहीं ।
सब अनुवाद पढ़ते हैं ।
जो अनुवाद प्रामाणिक नहीं है क्योंकि उन सभी अनुवादों को लेकर बहुत प्रकार के विवाद हैं ।
इस तरह ईसाई लोग तो अपने धर्म ग्रंथ की मूल भाषा ही नहीं जानते और उसे पढ़ते भी नहीं इसलिए वे उस अर्थ में अध्यात्म के उच्च स्तर पर धर्म निष्ठ नहीं कहे जा सकते।
अल्लाह के द्वारा इलहाम के रूप में या वही के रूप में प्राप्त पैगाम जिसे अब इस्लाम कहा जाता है और प्रारंभ में मोहम्मद पथ कहा गया ,
वह भी मूलतः तत्कालीन अरबी भाषा में अल्लाह ने उतारा।।
संसार भर में स्वयं को मुस्लिम कहने वाले जितने भी लोग हैं जिनकी संख्या लगभग 100 से 130 करोड़ तक है,
वे सब के सब लोग अपने-अपने इलाके की भाषाओं के अनुवाद के रूप में ही उस पैगाम को पढ़ते हैं ।।
भारत के 90% मुसलमान कुरान के हिंदी या तमिल या बांग्ला या मलयालम या गुजराती या मराठी आदि अनुवादों को ही पढ़ते हैं।
उर्दू हिंदी की ही एक शैली विशेष है।
स्वयं अरबी भाषा में भारत में कुरान शरीफ को पढ़ने वाले लोग 10000 से अधिक नहीं हैं।
उन 10000 में से भी वस्तुतः अरबी को समझने वाले 1000 भी नहीं है ।
मैंने बहुत सर्वेक्षण किया है ।
और तथ्य एकत्र किए हैं ।
उसके बाद देखकर लिख रहा हूँ:
जो मौलाना लोग अरबी का उच्चारण कर भी लेते हैं ,वह उसका अर्थ ही नहीं जानते ।
उच्चारण कुछ और है ,अर्थ कुछ और बताते या समझते हैं।
इस प्रकार इस्लाम मजहब या मोहम्मद साहब द्वारा प्रवर्तित पंथ में भी अपने धर्म ग्रंथ की मूल भाषा को पढ़ने वाले लोग बहुत ही थोड़े हैं।
यानी 10000 में एक व्यक्ति भी नहीं है ऐसा मोमिन,
जो अरबी जानता है।
अपने धर्म ग्रंथ की मूल भाषा को जानने वाले सबसे अधिक लोग हिंदुओं में ही हैं।
जो स्वयं नहीं जानते वे भी अंत में संस्कृत के ज्ञाता विद्वानों को ही अपना गुरु बनाते हैं।
जैसे कबीर साहब, सेन, पीपा आदि या स्वयं सद्गुरु श्री रविदास जी।
यह लोग संस्कृत नहीं जानते थे।
लेकिन उनके गुरु संस्कृत के विद्वान परम पूज्य रामानंद जी महाराज ही थे।
इस प्रकार अपने धर्म ग्रंथ की मूल भाषा को स्वयं पढ़कर उस धर्म और अध्यात्म की चेतना को, साधना पूर्वक तप पूर्वक प्राप्त करने वाला सबसे बड़ा समाज विश्व में हिंदू समाज ही है ।।
यह अत्यंत गौरव की बात है और दुर्लभ तथा अद्वितीय बात है ।
यह अच्छी तरह जानना चाहिए और इसलिए इस बात का गौरव भी रखना चाहिए और संस्कृत को सीखने या संस्कृत के विद्वान को अपना मार्गदर्शक गुरु बनाने का सदा प्रयास करते रहना चाहिए।
इस्लाम और ईसाइयत से हिंदू धर्म की मूल विशेषता इस रूप में सबसे अधिक समझी जा सकती है कि यहां अपने धर्म ग्रंथ के मूल को पढ़ने वाले लोग सर्वाधिक हैं।
विश्व में सर्वाधिक।रामेश्वर मिश्र पंकज
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