संबंधों की स्वस्थ विवशताएँ कितनी।
डॉ रामकृष्ण मिश्र
और हमारी आवश्यकताएँ कितनी।। चिंताओं के ताने - बाने सजते हैं,
सब ऊपर से अपने जैसे लगते हैं।
व्यथा - भार शायद हो जाए और अधिक।
और हमारी सिमटी सीमाएँ कितनी।।
जीवन का संदर्भ काठ - पत्थर सा है
और प्रयोजन मूक-बधिर के स्वर सा है।
पुच्छल ताराओं- से अपशकुनों का भय।
और हमारी ही अभिलाषाएँ कितनी।।
अपने शोणित का होना यों नीलापन
पैरों में घुलता जब थोड़ा पीलापन।
पुरखों की जीवन शैली उतराती है।
और हमारी न्यूनाशंकाएँ कितनी।।रामकृष्ण
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