ठंढक के पाँव हो गये।

ठंढक के पाँव हो गये।

डॉ रामकृष्ण मिश्र
धूप की प्रखरता का दंभ थम रहा,
अग्नि कोप का ताण्डव- वेग कम रहा।
मौसम के सहयोगी जान -बूझ कर
सर्जन के फलदायी बीज बो गये।।


अद्धी या मलमल अवकास पर गये।
फागुन के असरे विश्वास पर गये।
मधुमासी ढाबे पर खेल के लिए मनसूवे थके -थके पाँव सो गये।।


फसलों के आँगन की खेलती हवा
पूछ रही, कब होगी अरहरी नवा।
होगी कब सरसो के पीले वदन
आँखों में अँखुआए प्रीत धो गये।।


आखर अँगड़ाई के बिखरने लगे
सिहरन के भाव और बढ़ने लगे।
गूँगे गलियारों में शाम गयी रुकखलिहानों में सारे गीत ढ़ो गये।।
डॉ रामकृष्ण
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