क्यों जीवन से उद्धार मांगते हो
क्यों उब जाते हो तुम जीवन से ,क्यों जीवन से उद्धार मांगते हो ।
मिथ्या बोलते करते तुम दुष्कर्म ,
क्यों नहीं निज सुधार मांगते हो ?
भीक्षा मांगते औ ठगी हो करते ,
क्यों दिल से अपकार मांगते हो ।
क्यों न लाचारों की सेवा करते ,
क्यों न दिलसे उपकार मांगते हो ?
सबका शोषण औ दोहन करते ,
गलत करके ये गुहार मांगते हो ।
जीवनभर किए हिंसा दुष्कर्म ,
क्यों तुम ये पालनहार मांगते हो ?
अपनी प्रतिष्ठा तुम सहेज रखते ,
दूसरे की प्रतिष्ठा खूॅंटी टांगते हो ।
स्वयं फॅंसते हो दलदल में जब ,
क्यों न्याय की पुकार मांगते हो ?
चाहते हो शासन अकेले करना
संग में सहयोगी चार मांगते हो ।
छटक गए चारों ही जब तुमसे ,
क्यों उनसे आचार मांगते हो ?
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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