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कोढ़ कैंसर


कोढ़ कैंसर

बहुत पहले से पाल रखा मानव ,
अपने जीवन में ही कोढ़ कैंसर ।
प्यार मोहब्बत और अश्लीलता ,
नियंत्रित नहीं करती ये सैंसर ।।
डूब रही आज हमारी संस्कृति ,
फिर भी सैंसर कर देते हैं पास ।
कैसे आए मानव को मानवता ,
हो रही संस्कृति आज उदास ।।
लोभ लाभ से ग्रसित है मानव ,
रग रग में भरा पड़ा है वासना ।
भूल चूका है आज का मानव ,
अपने जीवन को ही तराशना ।।
सारे दुर्विचार फिल्मों से आईं ,
पति पत्नी बेटे बेटी देखें मिल ।
बड़े गौर से वे तो दृश्य देखते ,
अंदर से हृदय जाता है खिल ।।
गंदे दृश्य जल्द करता है असर ,
मातापिता जिसे करते प्यार ।
बेटी भी कहीं प्यार कर बैठी ,
एक दिन होती घर से फरार ।।
फैशन वस्त्र करते आकर्षित ,
मन में जगता फिर दुर्विचार ।
लड़के लड़की आकर्षित होते ,
कहीं कहीं आंखें होतीं चार ।।
फिल्म दिखाते हैं प्रेम कहानी ,
बच्चे बच्चियों पर दुष्प्रभाव ।
मातापिता भी समझ न पाते ,
बच्चों में होता ज्ञान अभाव ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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