क्या मार्क्सवाद कोई भौतिकतावादी दर्शन है?

क्या मार्क्सवाद कोई भौतिकतावादी दर्शन है?

- प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

हिन्दी साहित्य में प्रगतिवाद एवं यथार्थवाद जिस यथार्थ पर सर्वाधिक बल देते रहे हैं, उस ‘यथार्थ’ के यथा-अर्थ पर बड़ा बौद्धिक विभ्रम है। यथार्थवाद एवं प्रगतिवाद के विरोधी प्रायः उसे भौतिक यथार्थ मानकर उसके बरक्स मिथक, कल्पना, आध्यात्मिक सत्य, सांस्कृतिक-प्रतीकात्मकता, साहित्यिक सत्य आदि को खड़ा करते रहे हैं। परन्तु यह यथार्थ के मार्क्सवादी अर्थ को जाने बिना किया गया विरोध है।
ऐसा लगता है कि भारत में मार्क्सवाद, कुल-भक्ति एवं विजातीय गुरु-भक्ति के रूप में आया। इसीलिए यहाँ उसके प्रति अन्ध श्रद्धा, कुलाभिमान, समूह-अभिमान, और मोहावेश की प्रबलता है। लेकिन एक दर्शन के रूप में मार्क्सवाद के प्रति ज्ञान लगभग नगण्य है। स्वतन्त्र भारत में मार्क्सवाद सर्वाधिक प्रबल बौद्धिक धारा बना। काँग्रेस के संरक्षण में भारत के हर एक सरकारी विभाग के प्रमुख बौद्धिक पदाधिकारी मार्क्सवादी लोग होते रहे हैं। भारतीय लोकतान्त्रिक संरचना में प्रशासन-तन्त्र एक स्वतन्त्र सुदृढ़ स्तम्भ है। अतः भा.ज.पा. शासन में भी ब्यूरोक्रेसी में मार्क्सवादियों का प्राधान्य पूर्ववत है। भारत के लगभग सभी बड़े समाचार-पत्र घरानों के प्रमुख सम्पादक एवं पत्रकार वामपन्थी हैं। जो नहीं हैं, वे या तो भूतपूर्व वामपन्थी हैं या फिर मार्क्सवाद से प्रभावित हैं। बहुत थोड़े अपवाद ही इसमें बचे हैं। ऐसे शक्तिशाली बौद्धिक प्रवाह की मूल स्थापनाएँ हम सब जानें, यह आवश्यक है।
मार्क्सवाद डायलेक्टिकल मेटीरियलिज़्म है। यह यूरोपीय विद्या परम्परा का शब्द है। यदि आप यूरोपीय विद्या-परम्परा को नहीं जानते तो आप कभी भी ‘डायलेक्टिल मेटीरियलिज्म’ यानी मार्क्सवाद को जान नहीं सकते।
‘डायलेक्टिक्स’ शब्द मूलतः यूनानी है। ग्रीक परम्परा में इसका अर्थ है शास्त्रार्थ की कला। विरोधी पक्षों के तर्कों में निहित अन्तर्विरोधों को उघाड़ते हुए स्वपक्ष मण्डन की शास्त्रार्थ-कला डायलेक्टिक्स है।
यूनानी परम्परा में ‘डायलेक्टिक्स’ से उलटा है ‘मेटाफिजिक्स’। ‘मेटाफिजिक्स’ वस्तुतः भौतिक जगत के सार की व्याख्या है। ‘डायलेक्टिक्स’ भौतिक विस्तार सम्बन्धी विमर्श या शास्त्रार्थ है।
‘मैटीरियलिज्म’ का अर्थ है ‘मैटर’ की दृष्टि के ही परम सत्य होने का आग्रह। उनसे अलग आत्मा, अलौकिक सत्ता आदि का अस्वीकार। अतः निरीश्वरवादी होना मैटीरियलिज्म की अनिवार्य शर्त है।
यूरोपीय चिन्तन में मैटर और स्पिरिट-ये दो नितान्त भिन्न और विरोधी पदार्थ मानने की बहुत पुरानी परम्परा रही है। यद्यपि इससे अलग तथा विपरीत प्राचीन परम्पराएँ भी रही हैं। पर ईसाइयत के प्रसार के बाद से तो मैटर और स्पिरिट में परस्पर नितान्त विरोध लगभग सर्वमान्य हो गया। फलतः क्रिश्चियन यूरोप में जो स्पिरिट को मानने वाले वैज्ञानिक हुए, वे या तो ईसाई धार्मिक हुए या फिर रहस्यवादी। इनमें से जो धार्मिक ईसाई थे, उनमें से कुछ प्रायः प्रकृति में गुणात्मक परिवर्तन को ही अमान्य करते थे। मात्र रूपात्मक परिवर्तन ही मानते थे। जैसे कि स्वीडिश प्रकृति विज्ञानी चार्ल्स लाइनीयस (1707-1778 ई.) तथा फ्रेंच दार्शनिक रोबिने (1735-1820)।
उससे बहुत पहले यूनानी चिन्तक डेमोक्रेटिस (460-370 ई. पूर्व) ने प्रतिपादित किया था कि यह विश्व शाश्वत परमाणुओं एवं शून्य का बना हुआ है। उसपर प्लेटो (427-347 ई. पूर्व में) ने कहा कि वास्तविक सत्ता तो वैचारिक प्रत्ययों की ही सत्ता है। दृश्य जगत उस वैचारिक जगत का ही प्रतिविम्व है। इस तरह दो परस्पर विपरीत विचारधाराएँ वहाँ रहीं। इनमें से एक मैटीरियलिस्ट तथा दूसरी स्पिरिचुअलिस्ट रही। इनका द्वन्द्व यहाँ की प्रबल बौद्धिक परम्परा रही। उसमें से मैटीरियलिस्ट धारा में अधिक वौद्धिक सूक्ष्मता, गहराई तथा परिष्कार लाए कार्ल मार्क्स। इसीलिए उन्होंने अपने मतवाद को यानी सम्प्रदाय को नाम दिया ‘डाइलेक्टिकल मेटीरियलिज्म’।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के मूल प्रत्ययः
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार ‘मैटर’ यानी पदार्थ ही मूल है। मैटर मार्क्सवाद की एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक परिकल्पना है। यह मैटर यानी पदार्थ उस गुणधर्म को व्यक्त करता है, जो सभी वस्तुओं और व्यापारों में समान है। क्योंकि पदार्थ सभी का सब कुछ का, वस्तुगत यथार्थ है; इसलिए वह मनुष्य की चेतना से परे विद्यमान रहता है तथा उसकी चेतना में प्रतिबिम्बित होता है। इस तरह सम्पूर्ण वस्तुगत वास्तविकता ही पदार्थ है यानी पदार्थ एक मौलिक दार्शनिक परिकल्पना है। पदार्थ का अर्थ कोई भौतिक वस्तु वहाँ नहीं है।
यह सम्पूर्ण वस्तुगत वास्तविकता सभी वस्तुओं की वस्तुगतता है यानी समस्त वस्तुओं में एक वस्तुगतता है, वही सबका सामान्य धर्म है, यह दार्शनिक धारणा ही पदार्थ की धारणा है। पदार्थ की यह धारणा ज्ञान की आद्य परिकल्पना है क्योंकि पदार्थ मानव-चेतना से परे है तथा उसमें प्रतिबिम्बित है, इसीलिए मनुष्य विश्व का वास्तविक संज्ञान प्राप्त कर सकता है। यदि वस्तु मानव-चित्त का ही प्रतिफलन हो, तो फिर अलग-अलग चित्त की भिन्न-भिन्न धारणा होने पर, प्रामाणिक धारणा कौन-सी है, यह निश्चय नहीं हो पायेगा। (तुलनीयः पातंजल योगसूत्र- न चौक चित्ततन्त्रं वस्तु, तदप्रमाणकं, तदा किं स्यात्)। अतः सभी वस्तुओं की जो वस्तुता है, वही मैटर है। इस प्रकार मैटर याने कोई वस्तु, कोई द्रव्य नहीं। अपितु यह बौद्धिक धारणा कि समस्त भौतिक वस्तुओं में एक वस्तुता होती है, एक मैटर होता है, यह धारणा ही वास्तविक मैटीरियलिज्म है।
पदार्थ (मैटर) की गम्भीर मार्क्सवादी परिभाषा लेनिन ने दी है, जो कि लेनिन की संग्रहीत रचनाओं के खण्ड 14 के पृष्ठ 130 में दी गयी है। वह यह है कि पदार्थ (मैटर) एक दार्शनिक धारणा या परिकल्पना है, जो यह इंगित करती है कि वस्तुगत यथार्थ व्यक्ति चेतना से स्वतन्त्र है और व्यक्ति चेतना में यह वस्तुगत यथार्थ प्रतिविम्बित श्होता रहता है।
विद्यमान जगत की अनन्त विविधता और बहुलता ही मैटर यानी पदार्थ है। इसमें वस्तुएँ और व्यवस्थाएँ समाहित है। समस्त वैविध्यपूर्ण गुणों, सम्बन्धों, अन्त क्रियाओं और गति रूपों का मूल सत्त्व ही पदार्थ है। पदार्थ नामक किसी वस्तु विशेष (मैटर एज सचश्) की खोज वृथा है, क्योंकि वह समस्त व्यापक भौतिक जगत के एक सामान्य तत्त्व, सर्वत्र सभी पदार्थों में अन्तर्निहित एक तत्त्व की दार्शनिक परिकल्पना है। वह कोई अविभाज्य मूल तत्त्व या सार जैसा नहीं है। पदार्थ का अन्तर्भूत सार-तत्त्व कोई इन्द्रिय-ग्राह्य तत्त्व नहीं है। अपितु विश्व की वस्तुओं के विविध गुणों और अन्त क्रियाओं को जानना ही पदार्थ को जानना है। इस प्रकार सूक्ष्म तथा विशद् ज्ञान ही पदार्थ ज्ञान है। अतः पदार्थ यानी मैटर मार्क्सवादी शास्त्र के द्वारा स्वपक्ष-मण्डन के लिए प्रयुक्त एक मूल दार्शनिक परिकल्पना है। अधिकांश भावुक भारतीय मार्क्सवादी इस दार्शनिक तथ्य से अनजान रहे हैं। इनमें महापण्डित आदि उपाधियाँ धारण करने वाले कई भारतीय मार्क्सवादी भी शामिल है। वे श्मैटरश् को कोई वास्तविक भौतिक वस्तु समझ बैठते हैं।
इस दृष्टि से मैटर का ठीक-ठाक भारतीय पर्याय भूत-मात्र या द्रव्य-मात्र होगा और डायलेक्टिकल मेटीरियालिज्म का हिन्दी में अनुवाद होगा- द्वन्द्वात्मक भूतमात्रवाद या द्वन्द्वात्मक द्रव्यमात्रवाद। आचार्य नरेन्द्रदेव ने इसे पदार्थवादी अद्वैतवाद कहा था। परन्तु पाठकों की सुगमता के लिए हम यहाँ इसे द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ही कह रहे हैं और मैटर को पदार्थ ही कह रहे हैं।
मार्क्सवाद के अनुसार मैटर या पदार्थ जितना अधिक जटिल होता है, उसके गुण-लक्षण तथा अन्तः क्रियाएँ उतने ही अधिक वैविध्यपूर्ण और विशिष्ट होते जाते हैं। जटिलता के उच्चतम स्तर पर मैटर के रूप सर्वथा विलक्षण हो जाते है जिससे कि वे सामान्यतः मैटर दिखते ही नहीं। चेतना पदार्थ का एक ऐसा ही जटिलतम रूप है यानी श्चेतनाश् का भी सार-तत्त्व वही है, जो शेष मैटर का। इसी अर्थ में आचार्य नरेन्द्रदेव ने मैटीरियलिज्म को पदार्थवादी अद्वैतवाद कहा है। विश्व में एक ही तत्त्व मूल है, जिसकी बौद्धिक समझ से उपजी अवधारणा को मार्क्सवाद में मैटर कहा जाता है।
पदार्थ और चेतना
यहाँ सुधी पाठक फिर स्मरण कर लें- मैटर एक दार्शनिक परिकल्पना है। चेतना या कान्शसनेस को अलग तत्त्व मानने पर दो पृथक मौलिक दार्शनिक तत्त्व मानने होंगे। तब इनमें से परमार्थतः कौन-सा तत्त्व मूल है, यह प्रश्न शायद उठे। हर मानवीय कार्य-व्यापार को लेकर यह विवाद छिड़ सकता है कि उसमें पदार्थ तत्त्व कौन-सा या कितना है और चेतना-तत्त्व कितना और कौन-सा । इस द्वैत के दबाव से बचने के लिए पदार्थवादी अद्वैतवाद सामने आया। यानी मार्क्सवादियों के अनुसार श्चेतनाश् रूपी दार्शनिक धारणा परम तत्त्व या परमार्थ- सत्य नहीं है। वह केवल व्यावहारिक सत्य है। परमार्थ-सत्य तो मैटर है। कांशसनेस या चेतना व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्न-भिन्न रूप धारण करती है जबकि मैटर एक सामान्य दार्शनिक धारणा है। चेतना वैसी सामान्य दार्शनिक धारणा क्यों नहीं मानी जाये?
मार्क्सवाद का मानना है कि चेतना केवल इन्द्रिय-संवेदन नहीं है। वह इन्द्रिय संवेदन जो ज्ञान-तन्त्र में एक निश्चित अर्थ को उजागर करे, वही चेतना का अंग है। अतः चेतना (कांशसनेस) केवल मनुष्य में होती है। कांशसनेस मनुष्य की मानसिक प्रक्रिया का समस्त योग है। इसके द्वारा ही मनुष्य वस्तुगत संसार को और आत्म-सत्ता को समझने में सक्षम होता है। भाषा और चेतना का घनिष्ठ सम्बध है। भाषा और चेतना साथ-साथ हैं। भाषा, श्रम तथा सामाजिक उत्पादक क्रियाशीलताएँ चेतना का स्रोत हैं। श्रम की प्रक्रिया में, परस्पर सामाजिक सम्बन्धों में, मनुष्य वस्तुओं के गुणों को उद्घाटित करता है तथा पर्यावरण से अपने सम्बन्धों को समझता है और उन्हें समझकर अपनी ज़रूरतों के मुताबिक प्रकृति की शक्तियों को अपने अधीन लाने के लिए प्रकृति पर एक सोद्देश्य क्रिया करता है। अतः मार्क्सवाद का मानना है कि चेतना (कांशसनेस) सामाजिक विकास का एक उत्पाद है और मानवीय समाज से बाहर चेतना या कांशसनेस नामक कोई सत्ता विद्यमान नहीं होती। क्योंकि समझने की प्रक्रिया और ज्ञान, मनुष्य की सामाजिक ऐतिहासिक क्रियाशीलता का तथा भाषा का फल है और यही समझ और ज्ञान ही तो चेतना है। इसीलिए चेतना, मैटर या पदार्थ की तरह की सार्वभौम, सर्वव्यापी धारणा नहीं है। मैटर सर्वत्र है, श्सर्व नहीं है। यहाँ स्पष्ट मार्क्सवाद ईसाइयत का ही एक विस्तार सिद्ध होता है। यह एक आधारभूत श्चियर आस्था है कि आत्मा या आत्म-चेतना केवल पुरुषों या मदों में होती है। 20वीं शताब्दी में वर्ष ने इसमें यह संशोधन किया कि क्रिश्चियन स्त्रियों में भी आत्मा याम लेनी चाहिए। शेष मनुष्यों में विकासशील चेतना है। अन्य जीवों में तो आत्मा है ही नहीं। इसी किश्चियन आस्था का विशिष्ट भाष्य है मार्क्सवादी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद।
भाषा
यहाँ भाषा के बारे में मार्क्सवादी धारणा को समझना भी आवश्यक है। मार्क्सवाद के अनुसार भाषा एक प्राकृतिक संकेत-व्यवस्था (साइन- सिस्टम) है, जो मानवीय क्रियाशीलता की ज्ञानात्मक और सम्प्रेषणात्मक गतिविधियों की पूर्ति करती है। भाषा के द्वारा आप परस्पर सम्प्रेषण करते हैं तथा सब कुछ को जानते हैं। इनमें से प्राकृतिक (नेचुरल) या सहज भाषा वह है जो दैनन्दिन जीवन में विचार व्यक्त करने तथा परस्पर सम्प्रेषण के काम आती है। कृत्रिम भाषा वह है जो गणितीय प्रतीकों, भौतिक सिद्धान्तों, विभिन्न संकेत-पद्धतियों आदि के लिए गढ़ी जाती है।
भाषा एक सेकण्ड सिग्नल सिस्टम (द्वितीय संकेत-पद्धति) है, जो कि केवल मानवीय चित्त की विशिष्ट वृत्ति है। वह विचारों की सत्ता और अभिव्यक्ति का रूप है। चेतना की गढ़न में भाषा की विशेष भूमिका है। ज्ञान के संग्रह और संरक्षण को निर्धारित कर उसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने का माध्यम है भाषा । विचारों के सामान्यीकरण के लिए भाषा अनिवार्य है। केवल भाषा के द्वारा ही अमूर्त चिन्तन सम्भव होता है। किन्तु भाषा और विचार एक नहीं है। भाषा की सापेक्ष स्वतन्त्र सत्ता है। उसके अपने नियम हैं, जो विचार के नियमों से अलग हैं। इसीलिए धारणा और शब्द-ये दोनों एक नहीं हैं। निर्णय और वाक्य- ये दोनों एक नहीं हैं। एक ही शब्द अनेक धारणाओं से प्रयोग में लाया जा सकता है और अनेक धारणाएँ व्यक्त कर सकता है। एक ही वाक्य से भिन्न-भिन्न निर्णय निकल सकते हैं या निकाले जा सकते है। ये मान्यताएँ केवल मार्क्सवाद की नहीं है। परन्तु मार्क्सवाद भी इन्हें मानता है।
जैसे ‘धर्म’ एक शब्द है। भिन्न-भिन्न धारणाएँ इससे उपज सकती है। कोई परम्परागत भारतीय इसे सुनकर आनन्द से भर उठेगा। क्योंकि वह जानता है कि धर्म तो उत्तम गुण है, कर्तव्य है, सदाचार है और उससे सबका कल्याण होता है, सबकी उन्नति होती है। कोई इस्लाम, ईसाइयत या यहूदी मत का अनुयायी धर्म शब्द सुनकर सम्मान, अनुशासन और विनय से भर उठेगा, क्योंकि वह जानता है कि धर्म तो बस उसी का अपना पन्थ है, शेष तो मिथ्या धर्म है और अपना धर्म तो धर्मतन्त्र के अनुशासन में विनयपूर्वक रहने में ही चरितार्थ होगा। सम्भवतः कोई आधुनिक हिन्दू धर्म शब्द को सुनकर एक विचित्र उत्तेजना से भी भर उठेगा। क्योंकि उसे आशंका है कि उसके धर्म के प्रति औरों के भीतर अच्छे भाव नहीं हैं और भारत के धर्म की रक्षा तो करनी ही है, भले कठिनाइयाँ आएँ।
कोई पक्का कांग्रेसी धर्म शब्द को सुनकर सांसत में पड़ जायेगा। हे भगवान! धर्म की रक्षा तो ज़रूरी है। पर लोग तो केवल इन भाजपा-विहिप वालों को ही धर्म-रक्षक मानते हैं। धर्म की रक्षा तो करनी है, पर कुछ इस तरह कि भाजपाई उसका फायदा न उठा लें। बस, हमी धार्मिक कहलाएँ और देश का हित इसमें है कि हम साथ-साथ सेकुलर भी कहलाएँ। नहीं तो इस्लामी पन्थनिष्ठ (थियॉक्रेटिक) राज्य हमारे प्रति आक्रामक हो उठेंगे। यानी एक अन्तहीन चिन्ता और दुविधा में वह फँस जायेगा।
कोई पक्का कम्युनिस्ट या अन्य नास्तिक, धर्म शब्द सुनते ही क्रोध तथा घृणा से भर उठेगाः हुँह ! धर्म! इसी ने देश और दुनिया का सत्यानाश कर रखा है। धर्म केवल पाखण्ड और उन्माद का स्रोत है। धर्म नष्ट हो जाये तो लोग वर्ग-आधार पर वर्ग-संघर्ष करें, वर्ग-युद्ध करें, वर्ग-विध्वंस तथा वर्ग-उच्छेद करें, हमारी अगुवाई में, सर्वहारा वर्ग अपनी तानाशाही लादे और चलाये, वर्ग-शत्रुओं का सफाया कर दिया जाये, अवैज्ञानिक चिन्तन को नष्ट कर दिया जाये, फिर विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बल पर कम्युनिस्ट राज्य चले, हमारे सपने साकार हो।
कोई साधारण भारतीय जो कम्युनिस्ट या नास्तिक नहीं है, पर अधर्मी है, वह धर्म शब्द सुनते ही भयभीत हो जाएगा। लोक-निन्दा, ईश्वरीय दण्ड, अनिष्ट आदि की आशंकाएँ उसे घेर लेंगी।
इस प्रकार एक ही शब्द - धर्म से ये नितान्त भिन्न धारणाएँ उपज सकती हैं- (1) आनन्द (2) आदरपूर्ण अनुशासन (3) उत्तेजना (4) चिन्तनमय दुविधा (5) घृणा मिश्रित क्रोध तथा (6) भय। ये छः धारणाएँ तो हमने उदाहरण से समझायी है, ऐसी अनेक धारणाएँ धर्म शब्द सुनने से उपजनी सम्भव है। अतः धारणा और शब्द ये दोनों एक ही नहीं है। मार्क्सवाद भी इस तथ्य को मानता है।
इसी प्रकार एक वाक्य है- मैंने रोटी खायी। इससे आप कोई एक निर्णय नहीं ले सकते। रोटी खायी इतना तो मान सकते है। यद्यपि मनुष्य जीवन को देखते हुए, इतना भी मानना आवश्यक नहीं हैं। क्योंकि संकोच वश, या कतिपय अन्य कारणों से भी बिना खाये ही, मैंने रोटी खायी कहा जा सकता है। किन्तु अगर उस सम्भावना को छोड़ भी दें तो मैने रोटी खायी से अनेक निर्णय निकल सकते हैं-
1. बहुत तेज भूख थी, इसलिए खायी
2. सब खा रहे थे तो मैंने खायी
3. वे बुरा मानते, इसलिए खायी
4. और कुछ नहीं किया, बस रोटी खायी
5. आत्मीयता की अधिकता व्यक्त करने के लिए वहाँ रोटी खायी आदि-आदि।
इसी तरह मैं मार्क्सवादी हूँ - यह वाक्य मान लीजिये भारत के विश्वविद्यालय में कोई छात्र-छात्रा कहते हैं या कहीं कोई लेखक-पत्रकार कहते हैं, तो इससे अनेक निर्णय सम्भव है। सर, मुझ पर मेहरबान रहें, मैं मार्क्सवादी हूँ। बिरादर, मेरा ख्याल रखें, मैं भी मार्क्सवादी हूँ। प्रतिस्पर्धी! सावधान, मैं अकेला नहीं हूँ, भारत के सबसे बड़े बौद्धिक समूह का सदस्य हूँ, मैं मार्क्सवादी हूँ। अरे! ये धर्म, ये परम्पराएँ, इनकी बात मुझसे क्या करते हो! मैं मार्क्सवादी हूँ, होश रहे! यह कांग्रेस का राज्य है और मैं (उनका लाड़ला) मार्क्सवादी हूँ, भाजपा शासन है तो क्या, सारे देश में बौद्धिक संस्थानों पर आज भी हमारा ही कब्जा है, सरकारी खजाने का बड़ा हिस्सा हम ही लूटते हैं, हम मार्क्सवादी हैं इत्यादि । अतः वाक्य और निर्णय एक नहीं है, यह मार्क्सवाद भी मानता है।
साथ ही भाषा एक निश्चित व्यवस्था है, पद्धति है। उसकी एक आन्तरिक सरंचना है। उससे बाहर उस भाषा की धारणाएँ और शब्द समझे नहीं जा सकते। यह भी मार्क्सवाद की सर्वसम्मत मान्यता है।
अब इन मूलभूत मार्क्सवादी मान्यताओं को सुधी पाठक कृपाकर स्वयं मार्क्सवाद पर लागू कर देखें-
1. मैटर या पदार्थ (या भूतमात्र) तथा द्वन्द्वात्मक भूतमात्रवाद या भौतिकवाद दार्शनिक धारणाएँ है यानी संकेत-व्यवस्था के अवयव है। ये सहज भाषा का अंग नहीं है। बल्कि गणितीय सूत्रों या भौतिकशास्त्रीय सिद्धान्तों की तरह द्वन्द्वात्मक भूतमात्रवाद (या भौतिकवाद) एक कृत्रिम भाषा का शब्द है। इसका उद्देश्य एक विशेष तरह की दार्शनिक परम्परा को आगे बढ़ाना है। एक विशेष प्रकार के ज्ञान संग्रह को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाना इसका उद्देश्य है। यदि आप यह समझते हुए द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी बनते हैं, तब तो आप विचारवान है। नहीं तो आप विमूढात्मा हैं।
2. प्रत्येक भाषा- परम्परा एक ज्ञान परम्परा की वाहक होती है। जब आप अपनी भाषा परम्परा त्यागकर अन्य भाषा-परम्परा अपनाते हैं, तब आप अपनी ज्ञान परम्परा भी त्याग देते हैं और अन्य ज्ञान- परम्परा को अपनाते हैं। यहीं भाषा परम्परा का अर्थ है पद-परम्परा (टर्मिनॉलॉजी)।
3. जीवित प्राणियों का विशेष गुण है-सन्तति यानी अपनी संरचना को फिर से दुहरा सकना। स्वयं को दुहरा सकने की परम्परा। एक डी. एन. ए. अणु से दूसरा डी.एन.ए.अणु आसानी से बनता है। यही है उसकी सन्तान-परम्परा, उसके जीवित होने का विशेष गुण। अतः यदि आप अपने पूर्वजों की भाषा-परम्परा और ज्ञान-परम्परा को आगे बढ़ाते नहीं तो आप बौद्धिक और आत्मिक दृष्टि से उनकी सन्तति नहीं है, शारीरिक दृष्टि से भले हों। नये-नये ज्ञान-संग्रह का उद्देश्य अपनी ही ज्ञान-परम्परा का विस्तार और समृद्धि है। अपनी ज्ञान-परम्परा को तजकर या तजने के लिए जो नया ज्ञान-संग्रह होता है, वह धर्मान्तरण है, स्वयं को श्अन्यश् बनाना है, आत्मनिर्वासन तथा आत्मविलोप है; श्अन्यश् ही हो जाना है। तब आप दैहिक रूप से ही भारतीय सन्तति है। बौद्धिक तथा आत्मिक रूप में तब आप कुछ और हैं। जब आप अपनी बौद्धिक परम्परा को विस्तृत करने के लिए मार्क्सवाद या राष्ट्रवाद आदि को संग्रहीत तथा प्रयुक्त करते है, तभी आप भारतीय सपूत और सुपुत्री हैं। अन्यथा आप दैहिक रूप से भारतीय रहकर भी बौद्धिक एवं आत्मिक रूप से यूरो-ईसाई या यूरो-भारतीय हैं।
भारत में दोनों तरह के मार्क्सवादी हैं। एक ओर डॉ. रामविलास शर्मा जैसे मार्क्सवादी हैं, जो भारत के सपूत हैं, जिन्होंने मार्क्सवाद के ज्ञान का संग्रह और सदुपयोग भारतीय ज्ञान-परम्परा के विस्तार तथा पोषण के लिए किया। ताकि विश्व-ज्ञान-परम्परा में भारत अपनी सही भूमिका निभा सके।
दूसरी ओर स्वयं को मार्क्सवादी कहने वाले कतिपय जड़ भारतद्रोही है, जो भारत-निन्दा, भारत- धिक्कार तथा भारत-द्वेष को ही प्रगतिवाद मानते तथा बताते है।
चेतनावाद, तर्कबुद्धिवाद, आस्थावाद और अज्ञेयवाद सभी यूरोईसाई धारणाएँ है। पदार्थवाद या भौतिकवाद को कतिपय स्थापनाओं का भारतीय तत्त्व-चिन्तन से कभी-कभी साम्य देखकर, दास-बुद्धि नव- शिक्षित भारतीय लोग भारतीय दर्शन के भी वर्गीकरण उसी प्रकार करने लगते हैं, यह भयावह अज्ञान है। किसी भी यूरोपीय दर्शन से किसी भी भारतीय दर्शन की तुलना अज्ञानतापूर्ण है। कोई भी यूरोपीय विद्वान कभी किसी भारतीय दर्शन से किसी भी यूरोपीय दर्शन की तुलना नहीं करता। भारत के यूरण्डपन्थी विद्वान भारतीय दर्शनों की तुलना विविध यूरोपीय-दर्शनों से किया करते हैं। दर्शन भी अपनी ज्ञान -परम्परा का अभिन्न अंग है और यूरोपीय या अमेरिकी ज्ञान-परम्परा का प्रत्येक पद अपनी परम्परा में गहराई तक धँसा है। भारतीय ज्ञान परम्परा में उसे देखना-दिखाना भारतीय दर्शन और यूरोपीय दर्शन, दोनों का अनादर तथा अपमान है।
पदार्थवाद या भौतिकवाद पूरी तरह यूरोपीय धारणा है। इसका संसार की विविध वस्तुओं से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। संसार के द्रव्य या पदार्थ एक चीज़ हैं। संसार में सभी पदार्थों में मैटर नामक दार्शनिक धारणा को मूलतः निहित मानना दूसरी चीज़ है। चेतना को इसी मैटर का अति-संगठित, जटिल रूप मानना तीसरी चीज है। सभी पदार्थ व्यक्ति-चेतनाओं और व्यक्ति संवेदनाओं से स्वतन्त्र अपनी सत्ता रखते यह मानना चौधी चीज़ है। इन सबको गड्डमड्ड नहीं करना चाहिए।


यूरोप में पदार्थवाद की विरोधी जो चेतनावादी धारा उसका भी किसी भी भारतीय दर्शन से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। यूरोपीय चेतनावाद का मानना है कि श्स्पिरिटश् ही मूल है, मैटर सेकेण्डरी या गौण है। वहाँ भी स्पिरिट और मैटर दोनों ही बौद्धिक दार्शनिक धारणाएँ हैं। जबकि भारतीय दर्शन में चेतना बुद्धि से परे का, बुद्धि आदि सभी को प्रकाशित करने वाला तत्त्व है। अतः चेतना समस्त नाम-रूपात्मक उपाधियों से परे हैं और सब में वही व्याप्त है, प्रकाशित है। यूरोपीय चेतनावाद की मुख्य धारा यह मानती है कि जगत किसी निश्चित स्थान में और किसी निश्चित समय में रचा गया, अतः जगत अनादि नहीं है और इसीलिए अनन्त नहीं है। यूरोपीय चेतनावाद की एक अन्य धारा प्लेटो आदि दार्शनिकों की है, जो एक यूनिवर्सल रीज़न (ब्रह्माण्डीय बुद्धि) तथा एब्सॉल्यूट स्पिरिट (परम भावसत्ता) में आस्था रखती है। अतः उसके कई अंशों का भारतीय दर्शनों से साम्य है। लेकिन दार्शनिक विश्लेषण के विस्तार में दोनों में बहुत अधिक अन्तर है।
एक भौतिक चेतनावादी धारा भी यूरोप में है जो मैटर की वैज्ञानिक खोजों में हुई उस प्रगति को आधार बनाकर विकसित हुई है कि पदार्थ विलीन हो जाते हैं, मूल कण नामक कोई सत्ता नहीं बचती और सूक्ष्मतम स्तर पर कोई मूल पदार्थ चेतना से अभिन्न दिखते हैं तथा सापेक्षता ही सत्य ठहरती है। जिससे कि ज्ञान की वस्तुनिष्ठता असत्य सिद्ध होती है। पदार्थ के मूलकणों का स्वरूप तार्किक मानसिक संरचनाओं से अन्तःक्रिया के द्वारा ही व्याख्यायित हो पाता है, अतः हर परिभाषा या समझ सापेक्ष ही होती है।
रेशनलिज्म या तर्कबुद्धिवाद भी एक विशेष यूरोपीय धारणा है जो मानती है कि सार्वभौमता तथा अनिवार्यता का उद्गम अनुभव से नहीं होता, अपितु मस्तिष्क के द्वारा ही उनका निगमन सम्भव है। (पाठक क्षमा करें, यहाँ इस वाक्य का हर पद एक विशेष यूरोपीय प्रत्यय है, अतः दुर्बाेध लग सकता है। उसके विस्तार का यहाँ अवसर नहीं है। फिर कभी।) मस्तिष्क के आदि-बुद्धि-रूप सभी अनुभवों से पहले विद्यमान है और अनुभवों से स्वतन्त्र हैं। अतः उन्हीं आदि-बुद्धि-रूपों की कसौटी पर कसकर प्रत्येक बात को (जाँचना-परखना चाहिए। तर्क-शक्ति और बुद्धि का नैसर्गिक प्रकाश नेचुरल लाइट ऑफ द इण्टेलेक्ट) ही सही-गलत के परम निर्धारक हैं, उनकी कसौटी ही असली कसौटी है। उधर आस्थावाद एक विशिष्ट ईसाई दार्शनिक मान्यता है, जो कहते हैं कि इनोसेण्ट ईसाई आस्था ही संसार का असल चित्र तुम्हारे सामने खोल सकती है। जबकि अज्ञेयवाद का मानना है कि मानव-बुद्धि इस विश्व को पूर्णतः जान पाने में अक्षम है। मानव-बुद्धि के लिए यह विश्व अज्ञेय है।
इस प्रकार चेतनावाद, भौतिकवाद, तर्कबुद्धिवाद, आस्थावाद और अज्ञेयवाद-सभी विशिष्ट यूरोपीय धारणाएँ हैं। इनका किसी भी भारतीय दार्शनिक धारणा से तालमेल करना या ढूँढ़ना केवल बौद्धिक कमज़ोरी या अज्ञान है।
भारतीय दर्शन की भाषा ही भिन्न है। यहाँ चेतना का अर्थ कोई दार्शनिक धारणा नहीं है। अपितु चितिशक्ति है। 1. वह चितिशक्ति दर्शितविषया है-समस्त विषयों को बुद्धि के माध्यम से वही दर्शाती है। वह स्वप्रकाश शक्ति है। 2. वह चितिशक्ति अप्रतिसंक्रमा है। अर्थात् कार्य अथवा विषय में संक्रान्त नहीं होती। 3. अपरिणामिनी है अर्थात् उसमें कोई परिणाम नहीं होता, वह विकारहीन या परिवर्तन रहित है। 4. वह अनन्ता है, अन्त नामक किसी भी पदार्थ या घटना के साथ उसका कभी-भी संयोग ही नहीं होता। 5. वह शुद्धा है यानी पूर्ण है व स्वप्रकाश है। इस प्रकार चितिशक्ति शुद्धा, अनन्ता, अपरिणामिनी, अप्रतिसंक्रमा और दर्शितविषया है। वह भोक्तृशक्ति है। दर्शनशक्ति है। कार्य शक्ति है। उसी के कारण व्यक्ति ज्ञाता, दृष्टा, कर्त्ता, भोक्ता है। वह बुद्धि की वृत्ति को ज्ञानवृत्ति बना देती है। तब वैसी बुद्धिवृत्ति को अविशिष्टा बुद्धिवृत्ति कहते हैं यानी चौतन्य के साथ एकीभूत-सी बुद्धिवृत्ति ।
भारतीय दर्शन में पदार्थ का अर्थ है पद का अर्थ। यानी किसी पद का विषय; वह वस्तु जो उस पद द्वारा संकेतित हो रही है। प्रत्येक भारतीय दार्शनिक जानता है कि पद, अर्थ और प्रत्यय (पद से इंगित मनोभाव) ये तीनों अलग-अलग हैं तथा इनका अध्यास ही व्यक्ति की स्मृति में अंकित होता है। इसलिए प्रत्येक प्रत्यय किसी निश्चित अर्थ-परम्परा का अंग होता है। अतः पदार्थवाद और पदार्थवाद-विरोध, दोनों ही, भारतीय दृष्टि से निस्सार तथा निरर्थक बौद्धिक श्रम मात्र है। दोनों का सम्यक-बोध एक दार्शनिक प्रक्रिया है। हमारे यहाँ तो प्रत्येक पदार्थ का गम्भीर निरूपण होता है। जैसे प्रमा-पदार्थ क्या है? यथार्थ अनुभव ही प्रमा है। अनुभव स्मृति से व्यतिरिक्त (या भिन्न) ज्ञान है। उस प्रमा का जो असाधारण कारण है या जो प्रकृष्ट कारण है, वह प्रमाण है, यह हुआ संक्षेप में प्रमाण-पदार्थ निरूपण। इसी तरह प्रमेय पदार्थ, बुद्धि पदार्थ, आत्म पदार्थ, अभाव पदार्थ आदि-आदि का निरूपण होता है। अतः पदार्थवाद भारतीय दृष्टि से अत्यन्त उथला बौद्धिक व्यापार मात्र है। भारतीय पदार्थ- निरूपण-परम्परा अत्यन्त गहन-गम्भीर है। उसे तजकर यूरोपीय पदार्थवाद, चेतनावाद, आस्थावाद, अज्ञेयवाद आदि को अपनाना आत्मनिर्वासन है। भारत में मार्क्सवाद, भारतीय बौद्धिकों के एक बड़े वर्ग के आत्मविस्मरण, आत्मविलोप एवं आत्मनिर्वासन का फल है।
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