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मैं

मैं

अहम् के पालने में
पला बढ़ा
पुरुष हूँ।
हाँ
यह सच है कि
अहम्
मेरी कमजोरी है
जरूरत नहीं।
सच है कि
मेरे भीतर भी
कोमल हृदय है
मगर
यह भी सच है
कि वह
भावनाओं के कठोर
कवच में बंद हैं।
मेरे आँसू
कमजोरी के प्रतीक
और आह
वह तो निकल ही नहीं सकती।
जानती हो क्यों
क्योंकि
अगर मैं टूटा
तो
परिवार को
सँभालेगा कौन?
यह कहकर
मुझे कठोर बना दिया जाता है।
और हाँ
मेरा अधिकार नहीं है
कुछ पाना
यहाँ तक की
प्यार भी
बस
निर्धारित है
मेरा कर्तव्य
देना
बांटना
और
स्वयं की ख़ुशियाँ लुटा
परिवार को थामना।
तुम तो
अर्द्धांगिनी हो मेरी
कभी सोचना
विचारना
तन्हां क्षणों में
खुद से पूछना
कब सोचा था
कुछ मेरे लिए
मेरे नये कपड़े
थका शरीर
माता पिता बहन की चिंता
व्यथित होता मन?
हाँ
पता है सबको
मेरा कर्तव्य
दायित्व
परिवार की जरूरतें
पूरी करने का दबाव
ठीक सुना
यह सबको मालूम है।
नहीं पता तो बस यह
कि
मेरी इच्छाएं
मेरे मन
और
पैरों पर पड़े छाले
जो पड़ते जा रहे हैं
अपनों की बेरूखी से
कर्तव्य और अधिकार
की तराजू में झूलते
तुम्हारे अधिकार

मेरे कर्तव्य को
संतुलित करते।
तुमने
समझा मुझे
केवल और केवल
देयता।
बनाकर देवता
अवसर विशेष पर
मुझे पूजा
इस विश्वास से
कि
देवता का दायित्व है
वर देना
और
कृपा बनाए रखना।
विचारना कभी
जब
वर माँगो
देवता से
महंगे वस्त्र आभूषण
तब
देखना
उस देवता के वस्त्र
उसकी फ़िक्र
परिवार के भविष्य के प्रति
बच्चों का वर्तमान
और
कल की चिंता।
नहीं
शायद तुम नहीं समझोगी
क्योंकि
सिखाया जाता है
केवल और केवल
पाना
माँगना
वरदान भी
और
अधिकार भी
देवता से
और
देवता
बना है
केवल और केवल
देने के लिए।

डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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