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पायल बनाम चंदन

पायल बनाम चंदन

पायल को भी हक है माथे चढ़ने का।
कभी कभी चंदन से पाँव सजाने दो।।
इस समाज ने खोया है समरसता को।
खोल झरोखे वन- बयार भी आने दो।।


राजमहल ने कब चाहा कुटिया होना!
कुटिया के ही दम से राजमहल होते।।
अगर नहीं श्रम-सीकर दें कुटिया वाले।
धरती पर क्या ये सरताज महल होते?


संसद की ऊँचाई में जनतन्त्र सिकुड़ता।
और न जनता संसद से जुड़ पायी है।।
भीमकाय बरगद के मनहर छाँव तले।
दूब कहाँ कब विकसित हो मुस्काई है?


जब-जब पग-रज ने उड़ने की कोशिश की।
साथ हवा ने छोड़ दिया साजिश करके।।
चंदन, रोली ने पगड़ी से मिन्नत कीं।
छुपा लिया माथे को साफे ने सर के।।


मंदिर की सीढ़ी से श्रमिक हुआ वापस।
मस्जिद का मजदूर पुन: शर्मिंदा है।।
ईंट - मसाले में जिसने श्रम घोला था।
आज वही उस दर पर त्याज्य पुलिंदा है।।


क्रान्ति- ज्वाल में सारहीन सब राख बनेंगे।
सोना लह लह लहक लहक कु़ंदन होगा।।
छद्म - पात्रों के सर से फिर ताज गिरेंगे।
जनगण का शुचि वंदन अभिनन्दन होगा।।


सुनें ध्यान से सत्ता, संसद, राजमहल।
चक्रवात जल्दी अब आने वाला है।।
धूल धूसरित होंगे शाही सत्ता वाले।
अवध क्रान्ति- ध्वज हाथ उठाने वाला है।।

डॉ अवधेश कुमार अवध
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