हलाहल सूखा था, गीला कहीँ था !

हलाहल सूखा था, गीला कहीँ था !

====(अर्चना कृष्ण श्रीवास्तव )
कहीं पर लाल था , पीला कहीं था,
हलाहल सूखा था , गीला कहीँ था ।
हलाहल दौर को भरमा रहा था,
बिना चड्डी के बाहर आ रहा था ।
अर्चना कृष्ण को कटुतम न कहना,
कुर्सियों की वो गरीमा खा रहा था
महाभारत मे दिनकर का हलाहल,
सभी कंठों से बाहर आ रहा था ।
पता नही , आज किसकी मौत होगी,
समर में आम जन घबरा रहा था ।
कहीं पाण्डव, कहीं कौरव खडे थे,
शकुनी युद्ध को उकसा रहा था ।
पितामह चाहते थे, युद्ध ना हो,
अवश्यम्भावी तो होने जा रहा था।
कटेगा कौन , बस यह सोचना था,
समर कौरव बहुत धधका रहाथा।
बहुत संवेदना थी उस समय में,
कृष्ण! क्या होगा ? पूछा जा रहा था ।
कहीं भी आत्मा मे चैन ना था,
विध्वंस सम्मुख निरन्तर आ रहा था ।
हलाहल रंग में कैसा न पूछें,
ऐठन आत्मा को खा रही है ।
कलुषता की कुटिल परछाईयां,
सरकती पास आती जा रही हैं ।
चेहरों से सब पर्दे हट रहे है,
कुर्सी स्वर्ण रानी हो रही है ,
गरल के इस समन्दर मे सिसकती,वसुधा आज पानी हो रही है ।
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