मत करो इंसानियत को शर्मिंदा

मत करो इंसानियत को शर्मिंदा

क्यूॅं करते हो तुम हैवानियत ,
क्यूॅं करते इंसानियत शर्मिंदा ।
माना कि चल रहा कलियुग ,
आज भी इंसानियत है जिंदा ।।
मानवता को ताख पे रखकर ,
मानवता की करते हो निंदा ।
कर रहे तुम जो घटना घटित ,
तेरा भी होश उड़ाएगा परिंदा ।।
बालि कंस बने अनेक हो जब ,
आज भी एक राम काफी है ।
उतर गया राम यदि रणक्षेत्र में ,
फिर मिलना भी नहीं माफी है ।।
गॅंवाए हुए हो जब होश अपना ,
राम भी निज होश ये गॅंवाएंगे ।
फिर दोष न देना राम को तुम ,
जब राम तेरे छक्के छुड़ाएंगे ।।
त्यागो अभी से तुम हैवानियत ,
मत करो इंसानियत को शर्मिंदा ।
मत भूलो इस कलियुग में भी ,
आज भी इंसानियत है जिंदा ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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