हम कितने भाग्यशाली थे !
========(अर्चना कृष्ण श्रीवास्तव)
फर्स से अर्स तक,
सफर में सिर्फ दो कदम नही थे ।
पीछे स्नेह-सागर ,एक जमाना था,
जब अम्मा लालटेन जलाती थी-
समय से दीये की रोशनी,
किताबों पर लाती थी ।
पूर्वजों के संघर्षों की-
बीती यादें सुनाती थी ।
भूख के किस्से , दुख की कहानियाँ,
संघर्षों की तुरूपाइयाँ-
होशियार बनाने के कितने इतिहास,
अंत में कहती, बच्चों आना-
वर्ग में फर्स्ट क्लास !
मुझे काम नही , पढाई चाहिए,
भविष्य के सुखों और खुशी की-
गहराई चाहिए !
मेरे बाद बच्चों के आँखो में-
फिर यह पानी न हो ,
जो हमारे बीच रहा,
तेरे बीच ऐसी कोई कहानी न हो ।
पिताजी ऑफिस से घर आते,
चेहरे पर धकान, पावों में लडखडाहट उठाते ,
संघर्ष के गहरे धूल के-
तन-बदन पर निशान ।
कुछ हमारे लिए लेकर -
लौटना कभी न भूले ,
आते-जाते किसे क्या चाहिए-
यह थी उनकी पहचान !
कपडों पर सौ-सौ खरोंचे पहनते
हमे कभी उदास न पहनाते ।
अपने लिए एक जूते घसीटते,
हमारे वर्ष मे चार आते ।
किताबों के धनी,
खाने में घी-दार थे,
हम जमानेके संम्भ्रान्त परिवार थे
सबका चेहरा पढते,जब घर आते,
थके हों,सबको खिलखिलाता पाते ।
अनेक अनुशासन का,
घर में ताना-बाना था ।
उनके घर आने के पहले-
पढने बैठ जाना था ।
सबके बातों पर पैनी टार्च की-
रोशनी होती ,
शब्द की गंगा आदर्श वक्तव्यों से-
हदय के धूल धोती ।
पुरुषार्थ के भागीरथ को-
अंदर उगाना था,
पिताजी का पल तो,
आदर्श विश्व विद्यालय का-
खजाना था ।
अपने दिमाग के फर्श पर-
भविष्य का खुशनुमा-
अर्स बोते थे ,
हम कितने भाग्यशाली थे, जब अम्मा-पिताजी होते थे !!!
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