- 'रंग-तरंग ' : 'आचार्य काका 'की हास्य-व्यंग्य-परक कविताओं के संग्रह की संक्षिप्त समीक्षा-
-- डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
(स्व•) श्री केशव प्रसाद मिश्र 'आचार्य काका '।हम उन्हें सिर्फ 'काका ' कहते थे। 'काका ' के नाम से ही उनकी शुह्रत थी। हास्यमूर्त्ति 'काका के व्यक्तित्व में गजब की कशिश थी। हम उनके सान्निध्य के लिए हरदम उत्सुक रहते थे। उनकी उपस्थिति ऐसी होती थी, जो चुलिस्ताँ को गुलिस्ताँ कर दे। उन दिनों एक और हमारे बड़े ही दिलअजीज हमसुखन थे, मेरे बड़े भाई-जैसे, केदार नाथ मिश्र 'सोम '।अच्छे कवि थे ,एक कालेज में प्राध्यापकी भी करते थे और सबसे बढ़कर कवि-गोष्ठी और कवि-सम्मेलन के आयोजनों में बखूबी दिलचस्पी रखते थे।
असमय-अकस्मात दुनिया को अलविदा कह वह चल दिये। खगौल रेलवे के डी•एस•औफिस की हिन्दी साहित्य परिषद् के तत्त्वावधान में साहित्यिक आयोजन अक्सर हुआ करते थे। 'दिनकर ',प्रो•केसरी कुमार ,जैन कालेज आरा के प्रो • सीताराम 'प्रभास 'आदि भी पधारा करते थे और उन सब में काका हास्य-व्यंग्य की फुलझड़ियाँ छोड़कर पूरे माहौल को चिरागाँ कर देते थे।
' काका' की हास्य-व्यंग्य की कविताओं का संग्रह 'रंग-तरंग 'मेरे हाथों में है। उनके सुपुत्र आयुष्मान् श्री विनोद शंकर मिश्र ने मेरे पास प्रेषित करने की इनायत की है। इस संग्रह की ज्यादातर कविताएँ 'काका ' के श्रीमुख से सुनी हुई हैं। अभी हाल में ही पटना में इस पुस्तक का बाकायदा लोकार्पण संपन्न हुआ। ताज्जुब है,इनके घर में इस पुस्तक की एक भी प्रति उपलब्ध न थी। बड़ी खोज-ढूँढ के बाद किसी और के हाथों इस पुस्तक की एक प्रति हासिल हुई,जिसका पुनर्मुद्रण इनके सुपुत्र ने कराया है।
मेरे इस लेखन को बाजाब्ता समीक्षा न समझें, यह तो भींगी पलकों के साये में एक संस्मरण है।
हाथ में उनकी किताब है, मानस-पटल पर उनकी छवि बेसाख्ता उभर आई है और उस गुज़श्ता दौर के माजी के पन्ने फड़फड़ा उठे हैं। क्या था, वह भी एक दौर '60 -'80 का। सब एक सपना हो गया। इस दारेफानी में सब-कुछ सपना ही तो है। कैसे सुहाने थे वे दिन और अब तो--
"जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सु बीति बहार।
अब अलि रही गुलाब में, अपत कँटीली डार। ।"
'आचार्य काका ' श्री सदल मिश्र-नामा उन महापुरुष के वंशज हैं, जिन्हें 1860 वि•सं•में कलकत्ते में स्थापित फोर्ड विलियम कालेज में तत्रत्य उर्दू-हिन्दी के प्राध्यापक जाॅन गिलक्राइस्ट के द्वारा खड़ी बोली हिन्दी को साहित्यिक सृज्यता के अनुरूप बनाने के लिए रखा गया था तथा जिन्होंने "नासिकेतोपाख्यान " लिख कर खड़ी बोली की साहित्यिक योग्यता के लिए नई जमीन तोड़ने का श्रेय प्राप्त किया।
हास्य-व्यंग्य एक शैलीगत तत्त्व है या एक स्वतंत्र विधा?यह प्रश्न प्रायः उठा करता है। अंग्रेजी साहित्य में पोप और ड्राइडेन आदि अनेक लेखक और कवि व्यंग्यकार के रूप में प्रथित हैं। उनका पूरा काव्य-साहित्य ही व्यंग्यपरक है, लिहाजा वहाँ व्यंग्य को विधा की ही प्रतिष्ठा प्राप्त है और उस युग को 'Age of Reason 'के नाम से उल्लिखित किया गया है। किन्तु, अवधेय है कि जब किसी विधा, काव्य-साहित्य या कथा-साहित्य, की रचनात्मक समग्रता में हास्य-व्यंग्य महज पुट के रूप में यत्र-तत्र प्रयुक्त होता है, तो वहाँ शैलीगत ही होता है,यथा--"लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू (राम चरित मानस, अयोध्या• ३०/8 )"।जहाँ पुस्तकीय रूप में समस्त रचना-विधान ही हास्य-व्यंग्यात्मक हो, वहाँ हास्य-व्यंग्य को स्वतंत्र विधात्व स्वतः प्राप्त हो जाता है।
'आचार्य काका' हास्य-व्यंग्य के कवि-रूप में ही स्थापित थे। उनका समग्र कृतित्व हास्य-व्यंग्यात्मक है, इसलिए हास्य-व्यंग्य यहाँ स्वतंत्र विधा के रूप में ही मान्य होगा। काका की यह पुस्तक "रंग-तरंग "समग्रतः हास्य-व्यंग्यात्मक है, इसलिए साहित्य की हास्य-व्यंग्य-विधा की ही एक उत्तम उपलब्धि के रूप में मान्य होगी।
अंग्रेजी-साहित्य में जार्ज बर्नार्ड शा के नाट्य-साहित्य में यत्र-तत्र हास्य-व्यंग्य के तत्त्व-विशेष वाग्वैदग्ध्य (wit)का प्रयोग उनके कृतित्व के वैशिष्ट्य के रूप में मान्य है, यथा--उनके द्वारा प्रयुक्त निम्नलिखित, wit बड़ा मशहूर है--
"There are two tragedies in life. One is not to get your heart's desire.The other is to get it. "
हास्य-व्यंग्य का प्रयोग गद्य या पद्य किसी भी विधा में हो सकता है। हिन्दी में मुक्तक-काव्य के अंतर्गत 'क्षणिका 'या 'हंसिका' के नाम से एक विधा विकसित हुई है, जिसमें दो-चार छोटी पंक्तियों में हास्य-व्यंग्य की तीखी अभिव्यक्ति कर दी जाती है। ऐसी रचनाओं में शब्द-क्रीड़ा की प्रवृत्ति विशेष रूप से लक्षित होती है। क्षणिका व हंसिका की रचनाओं के लिए सरोजिनी प्रीतम, रामावतार चेतन आदि के नाम काफी प्रकाश में रहे हैं। देखिए, 'मौसी 'शब्द को लेकर निम्नांकित क्षणिका में रामावतार चेतन ने हास्य की कैसी सृष्टि की है। शीर्षक है-'संगीतज्ञ ' --
"बन्धुवर, आपने
सीखी कहाँ मौसीकी?
प्रियवर ,यह देन है
मेरी मौसी की ।"
जाहिरन्, यहाँ शब्द-क्रीड़ा द्वारा हास्य उत्पन्न करने का प्रयास है, जिसमें कोई खास वजन नहीं।
उसी प्रकार सरोजिनी प्रीतम की दो हंसिकाओं (क्षणिकाओं)का लुत्फ लीजिए--
सर्प-दंश
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"हाथी की तरह
साँपों के भी हो गए हैं
दो तरह के दाँत,
एक चुनाव से पहले
और दूसरा चुनाव के बाद दिखाई देता है। "
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"कीचड़ "
इन्हें एक-दूसरे पर
कीचड़ उछालते देख कर
मन्त्री जी ने इतनी-सी बात कही-
ध्यान रहे सदा
दल, दल है दलदल नहीं। "
छल-प्रपंचभरी आज की राजनीति पर शब्द-क्रीड़ा के कौशल से ही हास्य की सृष्टि की गई है।
हास्य-व्यंग्य के विशिष्ट कवि के रूप में शैल चतुर्वेदी ने काफी नामवरी हासिल की। आज की बाजारू और उपभोक्तावादी सभ्यता पर उन्होंने बड़े ही नाजुक लहजे में, मगर बड़ा ही तीखा व्यंग्य किया है--
"भूखा है पेट, काम है लोगों को हँसाना ,
पाई है उमर शैल मसखरी के लिए ।"
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"मुझको गज़लफरोश बनाया है पेट ने,
बैठा सरे बाजार गज़ल कह रहा हूँ मैं। "
सच पूछिए तो, हास्य-व्यंग्य की रचनाओं के अंतस्तल में दर्द होता है, जिसे लोग प्रायः नजरअंदाज कर जाते हैं। बारीक नजर चाहिए। अभिव्यक्ति के मर्म को गहराई से पकड़ने के लिए पाठक वा श्रोता को थोड़ी तकलीफ भी उठानी लाजिम है। H•W• Garrod ने गलत नहीं कहा है--
"We ask of poetry pleasure, but poetry also asks of us pains. "
हास्य-व्यंग्य की रचनाओं के अंतस्तल में जो दर्द छिपा होता है, उसपर शैल चतुर्वेदी की एक टिप्पणी ध्यातव्य है--"जो ठहाका मार कर हँसता और दुनिया को हँसाता हो, उसके हृदय की परतें कोई खोल कर देखे, तो तह में दर्द का कीड़ा कुलबुलाता नजर आएगा। तब अभिनय के द्वारा केवल ऊपरी ठहाके को ही नहीं, वरन् भीतरी दर्द को भी सामने लाने की आवश्यकता है। आँसुओं के बिना हास्य का क्या अस्तित्व (धर्मयुग, 7/1 /1973 )?"
कहना न होगा, हास्य-व्यंग्य की रचनाओं के प्रस॔ग में शैल चतुर्वेदी की तज़वीज बावन तोले पाव रत्ती सही है।
हिन्दी हास्य-व्यंग्य का एक ऐसा दौर भी गुजरा, जिसमें एक लहर 'अकविता ' के नाम से उठी थी। उस दृष्टि से कुमार विमल की एक 'अकविता 'का जायका लीजिए--
"दुनिया का सबसे सुखी आदमी--
सूअर।
और दु:खी जानवर-
आदमी (ज्ञानोदय -नवम्बर ,1969 )।"
कहना न होगा, यहाँ व्यंग्य अपने तीखेपन में हद को पार कर गया है, हालाँ कि एक कड़वे सच को बेलौस-बेबाक अभिव्यक्ति दी गई है।
'आचार्य काका 'की हास्य-व्यंग्य-परक कविताओं में व्यंग्य की अभिव्यक्ति हास्य से बखूबी लिपटे होने के कारण तिग्मता की अतिव्याप्ति से बच गई है। 'काका 'का यह कौशल बेशक सराहनीय है।
चूहे और श्वान के प्रतीकों के जरिए व्यंग्य की अभिव्यक्ति हास्य के आवेष्टन में काका ने बड़ी खूबी के साथ की है।
देखिए, चूहे के प्रतीक के कौशल से 'काका' ने जमाखोरों (Hoarders)पर कैसा हास्यकर मधुकशाघात किया है--
"चूहों में चर्चा चली, कुशल-खैर है नाहीं।
प्राण के संकट, पड़ गए, अब स्वराज के माहीं। ।
अब स्वराज के माहीं, हुई चूहे की गणना।
आपन दोष व्यर्थ हमारे सिर है मढ़ना ।
कह काका कविराय, पकड़ाएँ जो चूहे मोटे।
दाल का टाल छुपा भूमि में, सबके लूटें। ।"
(चूहों की चिन्ता, पृ •73 )
उसी प्रकार छल-प्रपंची, दाव-पेंची राजनीति के शातिर खिलाड़ियों पर हास्यपूर्वक व्यंग्य का चाबुक 'काका' ने बखूबी चलाया है, 'श्वान 'के प्रतीक के जरिए--
"अखिल भारतवर्ष के, जुटे हुए थे श्वान।
भूँक रहे थे जोर से ,फैला शोर महान।
फैला शोर महान, सभापति को बैठे।
कौन हो मन्त्री प्रधान, रोब से सब पर ऐंठे।
कह काका कविराय, सर्व सम्मति है पाई ।
जाके पूँछ सीध, सोई गद्दी पर आई। "(श्वान सम्मेलन, पृ-83 )
अन्त में एक श्वान 'विदेश-भ्रमण 'का झाँसा दे कर प्रधान मंत्री का पद प्राप्त कर लेता है। 'विदेश-भ्रमण 'का झाँसा काम आ गया। यों तो कुत्ते की पूँछ सीधी होने से रही। गुटबंदी और जतियाँव का फन भी जादू कर गया--
"कह काका कविराय, विदेश-भ्रमित वह कुत्ता।
चाट चुका था चाव से, बैठ श्वेत संग जूठा। "
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"कह काका कविराय, बना वह मंत्री कामचलाऊ।
धाक जमा ली धाँय से, कर गुटबंदी-जतियाऊँ। ।"
हास्य कितना सटीक और व्यंग्यपूर्ण है। व्यंग्य के प्रखर प्रयोग की कुशलता बेशक काका में बेजोड़ है।
यहाँ एक और तथ्य गाँठ कर लेने की है कि हास्य-व्यंग्य के लिए 'वचन-विकृति 'एक कौशल के रूप में प्रयोजनीय होने के कारण गुण है, दोष नहीं। बिना विकृति के हास्य में बाँकपन पैदा हो ही नहीं सकता। सुतरां, हास्य-व्यंग्य की रचनाओं में भाषा या अभिव्यक्ति के मामले में 'शुद्धाशुद्ध -विचार 'की कोई जगह नहीं।
स्वतंत्र भारत में अँगरेजियत की धाक किस कदर जमी हुई है, उसकी भी खूब अच्छी खबर ली है 'काका' ने---
"ऐंठ कर अँगरेजी बोलने में लज्जत है कितनी
स्वदेशी साहब का जब पारा चढ़ जाता है ।
लगती भली झड़प, 'ब्लडी फूल डैम इडियट ' की
हिंदी में तो 'तुम-ताम 'गाली बन जाता है।।"
********************
"माता की ममता, 'मम्मी 'से मलीन पड़ा,
पिता की पवित्रता, 'पापा 'से धुल जाती है।
बहन का बंधन, 'सिस्टर 'से शेष हुआ,
अर्द्धांगिनी 'वाइफ 'में बिलकुल खप जाती है।"
(पृ-37 )
जहाँ तक छन्दों का सवाल है, 'काका ' के पसंदीदा छन्द 'कुण्डलिया 'और 'कवित्त 'हैं। ये दोनों ही छन्द हिन्दी के अपने छन्द हैं। दोहा ,चौपाई, छप्पय, सवैया आदि भी हिन्दी के अपने छन्द हैं। 'चूहों की चिन्ता 'और 'श्वान -सम्मेलन 'की रचना में 'कुण्डलिया' का बड़ा ही सफल-समर्थ प्रयोग हुआ है। उसी प्रकार अँगरेजियत पर उद्धृत छन्द कवित्त का प्रशस्त उदाहरण है।
हास्य-व्यंग्य के प्रसिद्ध कवि 'काका हाथरसी 'की प्रायः तमाम रचनाएँ कुण्डलिया में ही निबद्ध हैं।
'आचार्य काका 'के 'रंग-तरंग 'से उद्धरण बतौर बानगी दिए गए हैं ,इन बानगियों के आईने में हास्य-व्यंग्य के उल्लेखनीय -समर्थ कवि के रूप में उनके कवि-व्यक्तित्व की मुकम्मल झलक सुचक्षुष्क पाठकों को सुलभ होगी। पूरा रस तो पुस्तक को आद्योपान्त पढ़ने से ही मिलेगा।
अधुना ज़िन्दगी की जानलेवा कश-म-कश से उबरने के लिए, कुछ क्षणों के लिए ही सही, ऐसी रचनाओं का रसास्वादन अवश्य-करणीय है।
जापानी कवि नागूँची की निम्नांकित उक्ति ग़ौरतलब है-
"यदि जीवन के किनारे की हरियाली सूख गई हो, आकाश का सारा क्रोध मेरे भाग्य पर बरसनेवाला हो, मेरे साथी एवं मेरे मित्र मुझे काँटों में अकेला छोड़कर कतरा गए हों; तब हे भगवन्!मुझपर इतनी कृपा अवश्य करना कि मेरे होठों के बीच हास्य की एक उजली रेखा खिंच जाय। "
हास्य का महत्व स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अदभ्र है--
"Laughter is an overflow of surplus nervous energy (Alduous Huxley)."
'आचार्य काका' ने हास्य-व्यंग्य के लिए 'विडम्बना '(Parody)का भी अतिशय प्रभावपूर्ण प्रयोग किया है।
कबीर के प्रसिद्ध पद -"संतो देखा जग बौराना। साँच कहो तो मारन धावे, झूठे जग पतियाना। ।"-की कैसी जानदार पैरोडी 'काका 'ने बखूबी की है, देखिए--
"समय ने पलटा खाया, हे सन्तो सारा जग बौराया।
लोक-लाज दुनिया से उठ गयो ,हो गया पुरुष बेहाया।"
उसी प्रकार सूरदास के प्रसिद्ध पद "जा दिन मन पंछी उड़ि जैहैं "की पैरोडी ,देखिए--
"जा दिन मन्त्री पद छिन जइहें ।
ता दिन तेरो सुख-सरिता के बूँद बूँद सुख जइहें। ।"
"रंग-तरंग " में इस तरह की पैरोडियों की बहार बड़ी ही दिलकश हो आई है। यहाँ बतौर बानगी कुछ उदाहरण दिए गए हैं।
'पैरोडी' के लिए हिन्दी में 'विडम्बना' शब्द ही प्रायः प्रचलित है। प्रिंसिपल मनोरंजन प्रसाद सिंह विडम्बक के रूप में एक प्रसिद्ध हस्ताक्षर रहे। स्वातंत्र्य-संग्राम के दिनों में उनकी कविता 'फिरंगिया 'खूब मशहूर हुई थी। रामचरितमानस की कुछ चौपाइयों की भी विडम्बना काफी मजेदार है। सुभद्रा कुमारी चौहान-रचित 'झाँसी की रानी 'की तर्ज पर उन्होंने वीर कुँवर सिंह पर कविता लिखी, जिसमें भी विडम्बनात्मक भंगिमा झलकती है--
"सब कहते हैं वीर कुँवर सिंह बड़ा वीर मरदाना था ।"
अंत में एक बात। 'आचार्य काका 'के सुपुत्र श्री विनोद शंकर मिश्र से मेरी एक शिकायत है। 'रंग-तरंग '-जैसी एक श्रेष्ठ पुस्तक का पुनर्मुद्रित प्रकाशन कराने की जल्दबाजी में इन्होंने सम्यक् संशोधन-संपादन का कष्ट नहीं उठाया। प्रेस वाले छपाई की भूलें बहुत करते हैं। उन्हें तो आपना पाकेट गरम करने की जल्दी रहती है। बारीक प्रूफ रीडिंग बहुत जरूरी होती है। यह काम स्वयं करने में यदि दिक्कत थी, तो अच्छे हिन्दीविद् साहित्यकार डा•राजमणि मिश्र सहज उपलब्ध थे। संशोधन-संपादन उनसे कराना बेहतर होता। मैं हृदयातिहृदय से कामना करता हूँ कि "रंग-तरंग "का सम्यक् संशोधन-संपादनपूर्वक पुनर्मुद्रण हो। मुझे पूर्ण विश्वास है, यदि "रंग-तरंग "को व्यापक Public exposure मिले, तो इस पुस्तक को लोग हाथोंहाथ लेंगेऔर 'आचार्य काका '-रचित हास्य-व्यंग्य की कविताओं का यह संग्रह "रंग-तरंग "हिन्दी के हास्य-व्यंग्य-साहित्य की एक कालजयी उपलब्धि सिद्ध होगा।
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