‘प्रसाद’ किसे कहते हैं ?

‘प्रसाद’ किसे कहते हैं ?

कमलेश पुण्यार्क

‘विन्ध्याचल गया था...वैष्णोदेवी गया था...बाबाधाम गया था...वहाँ का प्रसाद है..।’, ‘मेरे घर में छठ हो रहा है। प्रसाद खाने का निमन्त्रण है।’ , ‘मेरे घर सत्यनारायण पूजा है। प्रसाद लेने जरुर आइयेगा।’ — आए दिन इन बातों से सामना होते रहता है और जब-जब ऐसा होता है, मैं साधारण बुद्धि वाला आदमी धर्मसंकट में पड़ जाता हूँ—क्या करूँ, क्या न करुँ, जाउँ, न जाउँ, लूँ , न लूँ...। सामने वाले का मान रखने के लिए प्रसाद ग्रहण कर लूँ, निमन्त्रण स्वीकार कर लूँ? क्या ये सब प्रसाद है?
सवाल उठता है— प्रसाद है क्या ? प्रसाद कहते किसे हैं?
हमारी भारतीय संस्कृति में बहुत सी ऐसी बातें, ऐसी चीजें, ऐसे अनेक क्रिया-कलाप जाने-अनजाने, बिना समझे-बूझे रसे-बसे हैं, जिनपर सामान्य रूप से किसी का ध्यान भी नहीं जाता। ऐसे में विचार और चिन्तन का तो प्रश्न ही कहाँ !
धार्मिक आस्था बहुल देश में तीर्थाटन बहुत ही लोकप्रिय है। पहले की तुलना में अब संसाधनों की सुलभता ने इसे भ्रमण-देशाटन और पर्यटन का रूप दे दिया है। असली अर्थों में ‘तीर्थयात्रा’ होती कहाँ है। सच कहें तो तीर्थाटन ‘पिकनिक’ बन गया है आजकल।
देखा-देखी, दिखावा तो सहज मानव स्वभाव है। मन्दिर जाना, धार्मिक स्थलों पर घूमना, जोर-जबरदस्ती चन्दा उगाही कर बड़े-बड़े आकर्षक पंडाल बनाकर नाचना-गाना, डीजे का कर्कश शोर मचाना—धार्मिक होने की पहचान बन गयी है।
आजकल का प्रसाद भी उसी दिखावें का हिस्सा है। मुट्ठी भर चूड़ा-मूढ़ी के साथ एकाध अखरोट वाली पुड़िया देखते ही पता चल जाता है कि आप वैष्णवदेवी से आए हैं। सूखे भात-दाल की पतली सी झोली बता देती है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा हुई है। चूड़े के साथ विशेष गन्ध वाला पेड़ा यदि है तो निश्चित ही विन्ध्याचल का प्रसाद है। विशेष स्वाद वाला पेड़ा यदि चूड़ा के साथ है, तो बाबाधाम यात्रा की सूचना विना पूछे ही दे जाता है।
मजे की बात है कि अब लगभग सभी देवता-देवी चूड़ा-मूढ़ी खाने लगे हैं। फल मिले न मिले, मन्दिर के बाहर मूढ़ी (भूँजा हुआ उसना चावल, जो तामसी श्रेणी में है) का पैकेट जरुर मिल जायेगा।
कटु सत्य ये है कि ये सब के सब प्रसाद हैं ही नहीं। यात्रा से लौटते समय लोग हिसाब लगा लेते हैं कि कितने लोगों को प्रसाद बाँटना है और उसी हिसाब से फुटपाथ पर विकते मूड़ी-चूड़े के पैकेट, पेड़ा, अखरोट, मौली (बध्धी),रोली-सिन्दूर इत्यादि खरीद लेते हैं—जो तीर्थयात्रा का प्रमाणपत्र होता है।
इसी भाँति एक और लोकास्था वाला प्रसाद है—छठ व्रत के पूर्वदिन यानी पंचमी तिथि को शाम में वितरण किया जाने वाला खीर-रोटी। वस्तुतः ये छठव्रती का द्वितीय संयम दिवसीय पवित्र भोजन मात्र है, जिसकी पाँच आहुति चूल्हे की अग्नि में प्रदान कर, दिन भर के अखण्ड उपवास के पश्चात् व्रती ग्रहण करता है । छठव्रती के भोजनोपरान्त शेष भोज्य सामग्री परिवार के अन्य जन ग्रहण करते हैं। सच पूछें तो इसे सामाजिक तौर पर बाँटने का कोई प्रयोजन ही नहीं है। किन्तु इसे भी छठ के प्रसाद की श्रेणी में घसीट लिया है लोगों ने। छठ का असली प्रसाद तो अगले दिन सूर्याघ्य में निवेदित किया जाने वाला ठेकुआँ और फल इत्यादि हैं, जिसका वितरण सप्तमी तिथि को द्वितीय सूर्याघ्य के पश्चात् किया जाता है।
किन्तु खेद की बात है कि धार्मिकता के मैदान में अज्ञानान्धों की दौड़ में लोग कुछ के कुछ करते रहते हैं। हास्यास्पद बात ये है कि हर गलतियों को परम्परा की ढाल से ढकने का प्रयास करते नहीं आघाते । सच तो ये है कि न तो हमें मूर्ति का रहस्य ज्ञात है और न पूजा-उपासना का। ऐसे में प्रसाद और नैवेद्य को समझना तो और भी कठिन होगा न !
मूर्तिपूजा का खण्डन करने वाले महावीर जैन याकि महात्मा बुद्ध अकेले या पहले व्यक्ति नहीं थे, प्रत्युत उनसे ढाई हजार वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण ने भी जमकर आलोचना की है। वेदान्त ने तो अपने अन्दाज में चीखा ही है इन कुरीतियों पर। किन्तु अफसोस की बात ये है कि हमने उन सबकी ही मूर्तियाँ बना डाली, मन्दिर बना डाले। वेदान्त की विवेचना का रत्ती भर भी हृदयंगम न हो पाया। परिणामतः मूर्ति, लिंग, प्रतीक, आलम्ब सबका अर्थ गडमड हो गया।
अतः अब जरा ‘प्रसाद’ जिसे ‘नैवेद्य’ भी कह दिया जाता है—के भाव और उद्देश्य पर किंचित विचार करें।
पहले इसके लौकिक अर्थ या प्रचलित समझ पर ही विचार करें। किसी देवी-देवत के संक्षिप्त पंचोपचार पूजन में भी नैवेद्यार्पण का विधान है, तदन्तर्गत भोज्य पदार्थों पर जलमण्डल आवृत्त कर तुलसीदल छोड़ते हैं। तदुपरान्त प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान नामक पञ्चमुद्राओं का प्रदर्शन करते हुए, नैवेद्यार्पण-मन्त्र का उच्चारण करते हैं। मध्यपानीय एवं नैवेद्यान्त जलपान का मन्त्रोच्चारण भी आवश्यक होता है। इस प्रकार प्रकृति से प्राप्त पदार्थ को प्रकृति के प्रतीक को समर्पित करते हुए, अहं मार्जन का उपक्रम होता है। ये ही असली नैवेद्य हुआ।
अब शब्द और अर्थ पर ध्यान दें— ‘सद्’ धातु से बना है सादः , जिसका विभिन्न अर्थों में प्रयोग होता है—पवित्रता, स्वच्छता, क्षय, लोप, पीड़ा, बैठना, थकावट इत्यादि। प्रसाद में भी वही मूल धातु है—प्र+सद्+घञ् = प्रसाद। कृपा, स्वच्छता, कुशल, शान्ति, अच्छा स्वभाव, प्रसन्नता आदि अर्थों में इसका प्रयोग होता है। भूतकालिक प्रत्यय—‘त्त्क’ के संयोग से बनने वाले ‘प्रसन्न ’ में भी यही सद् धातु ही है । उदासी, सुस्ती, मूर्च्छा, थकावट, बर्बादी आदि के लिए प्रयुक्त अवसाद शब्द में भी यही धातु है— अव+सद्+घञ् ।
इस हिसाब से ऊपर वर्णित (विवेच्य विषय—प्रसाद) पर विचार करें तो कृपा, पवित्रता, स्वच्छता के साथ-साथ ‘बैठना’ वाले अर्थ को भी ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु प्रसाद के रूप में हमें जो मिल रहा है, क्या वह प्रसाद है ? न तो उसमें स्वच्छता या पवित्रता है और न देवी-देवता की कृपा ही है और न उनके समीप बैठने, रहने, रखने जैसी बात ही है। ऐसे में उसे ग्रहण करने का क्या औचित्य?
आस्था > श्रद्धा > विश्वास > मान्यता को उत्तरोत्तर ह्रास क्रम में देखें (समझें) तो स्पष्ट हो जायेगा कि यहाँ प्रसाद देने वाले की मात्र मान्यता और लेने वाले के विश्वास, श्रद्धा, आस्था की ही बात है केवल। इससे अधिक और कुछ नहीं। सत्त्व का तो इसमें लेश भी नहीं है, रज आंशिक रूप से विद्यमान है और मुख्य संरचना तो सिर्फ और सिर्फ तम की ही है। अतः इसे ग्रहण करने से ग्रहीता को कुछ लब्ध नहीं होने जा रहा है और न अस्वीकार करने से कोई हानि ही।
किन्तु मान्यता, विश्वास, परम्परा और धारणा की गलत खूँटी इतनी गहराई तक धँसी हुई है कि इसे उखाड़ फेंकना असम्भव नहीं, परन्तु बहुत कठिन अवश्य है। फिर भी प्रयास तो करना ही होगा न।
निर्गुण-निराकार तक पहुँचने के लिए सगुण-साकार का आलम्ब लेने का सुझाव दिया गया है विविध शास्त्रों में। अतः अपने इष्टदेव की आराधना, पूजा, अर्चना, उपासना यथासम्भव अवश्य करें। उन्हें निवेदित किया गया पदार्थ ही आपके लिए नैवेद्य है। उनकी कृपा ही आपके लिए प्रसाद है। अब साधन को ही कोई साध्य माने बैठे है, नदी पार करने के बाद भी नाव को सिर पर उठाये चलता है, तो उसकी बात ही क्या ।
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