एक उपासक परिजन साधक

एक उपासक परिजन साधक

छठ व्रत का‌ होता महत्व बड़ा ,
पूरे परिजन हो जाते हैं मग्न ।
घर में तब खुशियां ली छाती ,
एक ही व्रती रहता है संलग्न ।।
पुरुष रहते या महिला रहती ,
घर में कोई एक ही उपासक ।
छठ व्रत व्यवस्था में लगते ,
घर के परिजन होते साघक ।।
व्रत के नाम गेहूॅं धोते सुखाते ,
पशु पक्षी से भी वे बचाते हैं ।
पावनता छाई घर में तबसे ,
सब छूने से भी कतराते हैं ।।
हाथ पैर धो कुछ भी करते ,
करने के बाद भी वे धोते हैं ।
तत्पश्चात वे करते कुछ भी ,
व्रत साधना में वे खोते हैं ।।
नहा खा कर पावन होतीं ,
खरना करतीं निर्जला रह ।
खरना पश्चात छत्तीस घंटे ,
निर्जला रह वे जातीं सह ।।
तब देवी देव सब पूजतीं ,
सबका करतीं हैं आभार ।
घर आकर पारण करतीं ,
यही होता छठ व्रत सार ।।
सबको हैं प्रसाद खिलाते ,
जहाॅं नहीं हुआ होता व्रत ।
तत्पश्चात फुर्सत हैं पाती ,
अन्य कार्य होतीं व्यस्त ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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