आज का दौर
ऋचा श्रावणीहर इंसान अकेला है
तन्हा है, स्वार्थ से लिपटा है
अपने मतलब के लिए रिश्ता जोड़ता है
असफलता पर निराश होने की बजाय
प्रयत्न करने की बजाय
आत्मघात कर बैठता हैं
यह कैसा समय आ गया है
कोई अपना नहीं दिखता है
धन के पीछे तो सब भागा
खून की नदी भी बहा डाला
लेकिन कैसे समझाए युवाओं को
संतोष और प्रेम की परिभाषा
पूर्वज हमारे धोती पहनते
चेहरे पर सदैव मुस्कान रखते
दिन में खेती और रात में कीर्तन
यही करके चैन की नींद सो जाते
ब्रह्ममुहूर्त की मधुर बेला में
मंदिर की घंटी बजे
वेदों के मंत्र उच्चारण के
ध्वनि से वन उपवन भी आनंदमय हो उठे
स्त्रियां भी उस मधुरम में
घर के सारे काम निपटा ले
महत्वाकांक्षी नहीं थे वो
पर दूरदर्शिता थी उनमें
प्रकृति के साथ चले
परंतु विरुद्ध कभी नहीं हुए
फिर काहे को दुख होवे
जो सदैव मानवता के लिए जिए।
ऋचा श्रावणीअप्रकाशित मौलिक स्वरचना
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