पत्नी घुड़की दे रही, लेकर बेलन हाथ,
नारी का उपहास किया, छोड़ दूँगी साथ।छोड़ दूँगी साथ, फिरोगे फिर मारे मारे,
ज्यों सड़कों पर घूम रहे, कुंवारे बहुत सारे।
कह कीर्ति कविराय, बात समझ लो इतनी,
घर के रहो न घाट, रूठ जाये जो पत्नी।
पत्नी से ही परिवार, पत्नी से रिश्ते नाते,
कुंवारे मानस किसी को, कभी नहीं भाते।
कभी नहीं भाते, देखते शक्की निगाहों से,
आवाज़ लगाते सब उसे, गिरे हुये भावों से।
बेचारा वो मर्द, औक़ात कोल्हू बैल जितनी,
नहीं हुई शादी, या छोड जाये जिसे पत्नी।
अ कीर्ति वर्द्धन
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